पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ते नरः) = वे मनुष्य (के) = आनन्द में विचरनेवाले हैं (ये) = जो हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! ते इषे = आपकी प्रेरणा में चलते हैं । अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुनकर कार्य करनेवाले लोग आनन्द में विचरण करते हैं । [२] आनन्द में वे हैं (ये) = जो हे प्रभो ! (ते) = आपके (सुम्नम्) = स्तवन को [hymn], जो (सधन्यम्) = मनुष्य को प्रशस्त बनानेवाले धन से युक्त है, (इयक्षान्) = अपने साथ संगत करते हैं । प्रभु का स्तवन करनेवाले धन-सम्पन्न व्यक्ति आनन्दमय जीवनवाले होते हैं । प्रभु-स्तवन से रहित धन ही निधन का कारण बनता है। [३] (ते) = वे (के) = आनन्द में हैं जो (असुर्याय) = असुरों के संहार के लिये साधनभूत (वाजाय) = शक्ति के लिये (हिन्वरे) = प्रेरित होते हैं । आसुरवृत्तियों को नष्ट करनेवाले बल से युक्त पुरुष ही आनन्दमय जीवनवाले होते हैं। [४] आनन्द में वे हैं जो (स्वासु उर्वरासु) = अपनी उपजाऊ भूमियों पर (पौंस्ये) = पुरुषार्थ में निवास करते हैं और (अप्सु) = सदा कर्मों में लगे रहते हैं । अर्थात् कृषि-प्रधान (पौरुष) = सम्पन्न क्रियाशील जीवन ही मनुष्य को आनन्दित करनेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- आनन्द प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि - [क] हम प्रभु प्रेरणा को सुनें, [ख] प्रभु का स्तवन करते हुए धनसम्पन्न हों, [ग] आसुरवृत्तियों की नाशक शक्ति से युक्त हों, [घ] कृषि प्रधान श्रममय जीवन बिताएँ ।