सं यन्मदा॑य शु॒ष्मिण॑ ए॒ना ह्य॑स्यो॒दरे॑। स॒मु॒द्रो न व्यचो॑ द॒धे॥
saṁ yan madāya śuṣmiṇa enā hy asyodare | samudro na vyaco dadhe ||
सम्। यत्। मदा॑य। शु॒ष्मिणे॑। ए॒ना। हि। अ॒स्य॒। उ॒दरे॑। स॒मु॒द्रः। न। व्यचः॑। द॒धे॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अहं हि खलु मदाय शुष्मिणे समुद्रो व्यचो नो वाऽस्येन्द्राख्यस्याग्नेरुदर एना एनेन शतेन सहस्रेण च गुणैः सह वर्त्तमाना यत् याः क्रियाः सन्ति ताः सन्दधे॥३॥