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त्वद्धि पु॑त्र सहसो॒ वि पू॒र्वीर्दे॒वस्य॒ यन्त्यू॒तयो॒ वि वाजाः॑। त्वं दे॑हि सह॒स्रिणं॑ र॒यिं नो॑ऽद्रो॒घेण॒ वच॑सा स॒त्यम॑ग्ने॥

English Transliteration

tvad dhi putra sahaso vi pūrvīr devasya yanty ūtayo vi vājāḥ | tvaṁ dehi sahasriṇaṁ rayiṁ no drogheṇa vacasā satyam agne ||

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Pad Path

त्वत्। हि। पु॒त्र॒। स॒ह॒सः॒। वि। पू॒र्वीः। दे॒वस्य॑। यन्ति॑। ऊ॒तयः॑। वि। वाजाः॑। त्वम्। दे॒हि॒। स॒ह॒स्रिण॑म्। र॒यिम्। नः॒। अ॒द्रो॒घेण॑। वच॑सा। स॒त्यम्। अ॒ग्ने॒॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:14» Mantra:6 | Ashtak:3» Adhyay:1» Varga:14» Mantra:6 | Mandal:3» Anuvak:2» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (सहसः) बल के (पुत्र) पवित्रकर्ता ! (हि) जिससे जो (देवस्य) जगदीश्वर की (पूर्वीः) अतिकाल से उत्पन्न (वाजाः) विज्ञान और अन्नयुक्त (ऊतयः) रक्षा आदि क्रिया हम लोगों को (त्वत्) आपसे (वि, यन्ति) प्राप्त होती हैंम हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी ! उससे (त्वम्) आप (अद्रोघेण) वैररहित (वचसा) वचन से (नः) हम लोगों के लिये (सत्यम्) उत्तम व्यवहारों में व्यय होने योग्य (सहस्रिणम्) असङ्ख्य वस्तुओं से पूरित (रयिम्) धन को (वि, देहि) दीजिये ॥६॥
Connotation: - सकल शिष्य अध्यापक राजपुरुष और प्रजाजनों को चाहिये कि वैर आदि दोषों को त्याग परस्पर स्नेह उत्पन्न करके मेल कर असङ्ख्य धन और विज्ञान परस्पर बढ़ावें ॥६॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे सहसस्पुत्र हि या देवस्य पूर्वीरूतयो वाजा अस्मान्त्वद्वियन्ति। हे अग्ने ततस्त्वमद्रोघेण वचसा नोऽस्मभ्यं सत्यं सहस्रिणं रयिं वि देहि ॥६॥

Word-Meaning: - (त्वत्) तव सकाशात् (हि) यतः (पुत्र) पवित्रकारक (सहसः) बलस्य (वि) (पूर्वीः) सनातन्यः (देवस्य) जगदीश्वरस्य (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (ऊतयः) रक्षणाद्याः (वि) (वाजाः) विज्ञानान्नयुक्ताः (त्वम्) (देहि) (सहस्रिणम्) सहस्रमसङ्ख्यानि वस्तूनि विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (रयिम्) श्रियम् (नः) अस्मभ्यम् (अद्रोघेण) अद्रोहेण निर्वैरेण। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य घः। (वचसा) वचनेन (सत्यम्) सत्सु व्यवहारेषु साधुम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान ॥६॥
Connotation: - सर्वैरध्येत्रध्यापकराजपुरुषप्रजाजनैर्द्रोहादिदोषान्विहाय प्रीतिं संपाद्य परस्परेषामसङ्ख्यं धनं विज्ञानं च सततमुन्नेयम् ॥६॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - सर्व शिष्य, अध्यापक, राजपुरुष व प्रजाजनांनी वैर इत्यादी दोषांचा त्याग करून परस्पर स्नेह उत्पन्न करून असंख्य धन व विज्ञान सतत वाढवावे. ॥ ६ ॥