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अध॒ प्र ज॑ज्ञे त॒रणि॑र्ममत्तु॒ प्र रो॑च्य॒स्या उ॒षसो॒ न सूर॑:। इन्दु॒र्येभि॒राष्ट॒ स्वेदु॑हव्यैः स्रु॒वेण॑ सि॒ञ्चञ्ज॒रणा॒भि धाम॑ ॥

English Transliteration

adha pra jajñe taraṇir mamattu pra rocy asyā uṣaso na sūraḥ | indur yebhir āṣṭa sveduhavyaiḥ sruveṇa siñcañ jaraṇābhi dhāma ||

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Pad Path

अध॑। प्र। ज॒ज्ञे॒। त॒रणिः॑। म॒म॒त्तु॒। प्र। रो॒चि॒। अ॒स्याः। उ॒षसः॑। न। सूरः॑। इन्दुः॑। येभिः॑। आष्ट॑। स्वऽइदु॑हव्यैः। स्रु॒वेण॑। सि॒ञ्चन्। ज॒रणा॑। अ॒भि। धाम॑ ॥ १.१२१.६

Rigveda » Mandal:1» Sukta:121» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:25» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:18» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्य कैसे वर्त्ते, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे अच्छे कामों के अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य ! आप (उषसः) प्रभात समय से (सूरः) सूर्य के (न) समान (येभिः) जिनसे (स्वेदुहव्यैः) अपने देने-लेने के योग्य दूध आदि पदार्थों से ऐश्वर्य्य अर्थात् उत्तम पदार्थ सिद्ध होते हैं उनसे और (स्रुवेण) श्रुवा आदि के योग से (धाम) यज्ञभूमि को (अभिसिञ्चन्) सब ओर से सींचते हुए सज्जनों के समान (अस्याः) इन गौ के दूध आदि पदार्थों से (प्र, रोचि) संसार में भली-भाँति प्रकाशमान हो और (इन्दु) ऐश्वर्य्ययुक्त (जरणा) प्रशंसित कामों को (आष्ट) प्राप्त हो (तरणिः) दुःख से पार पहुँचे हुए सुख का विस्तार करने अर्थात् बढ़ानेवाले आप (ममत्तु) आनन्द भोगो, (अध) इसके अनन्तर (प्र, जज्ञे) प्रसिद्ध होओ ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य गौ आदि पशुओं को राख और उनकी वृद्धि कर वैद्यकशास्त्र के अनुसार इन पशुओं से दूध आधि को सेवते हुए बलिष्ठ और अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त निरन्तर हों, जैसे कोई हल, पटेला आदि साधनों से युक्ति के साथ खेत को सिद्ध कर जल से सींचता हुआ अन्न आदि पदार्थों से युक्त होकर बल और ऐश्वर्य्य से सूर्य्य के समान प्रकाशमान होता है, वैसे इन प्रशंसा योग्य कामों को करते हुए प्रकाशित हों ॥ ६ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे सत्कर्मानुष्ठातो भवानुषसः सूरो न येभिः स्वेदुहव्यैः स्रुवेण धामाभिसिञ्चन्निवास्या दुग्धादिभिः प्ररोचि। इन्दुः सन् जरणाष्ट तरणिः सन् ममत्तु। अध प्रजज्ञे प्रसिद्धौ भवतु ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (अध) अथ (प्र) (जज्ञे) जायताम् (तरणिः) दुःखात् पारगः सुखविस्तारकः (ममत्तु) आनन्द। अत्र विकरणस्य श्लुः। (प्र) (रोचि) जगति प्रकाश्येत (अस्याः) गोः (उषसः) प्रभातात् (न) इव (सूरः) सविता (इन्दुः) (येभिः) यैः (आष्ट) अश्नुवीत। अत्र लिङि लुङ् विकरणस्य लुक्। (स्वेदुहव्यैः) स्वानि इदूनि ऐश्वर्य्याणि हव्यानि दातुमादातुं योग्यानि येभ्यो दुग्धादिभ्यस्तैः (स्रुवेण) (सिञ्चन्) (जरणा) जरणानि स्तुत्यानि कर्माणि (अभि) (धाम) स्थलम् ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्या गवादीन् संरक्ष्योन्नीय वैद्यकशास्त्रानुसारेणैतेषां दुग्धादीनि सेवमाना बलिष्ठा अत्यैश्वर्ययुक्ताः सततं भवन्तु। यथा कश्चिदुपसाधनेन युक्त्या क्षेत्रं निर्माय जलेन सिञ्चन्नन्नादियुक्तो भूत्वा बलैश्वर्येण सूर्यवत्प्रकाशते तथैवैतानि स्तुत्यानि कर्माणि कुर्वन्तः प्रदीप्यन्ताम् ॥ ६ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी गाय इत्यादी पशूंचे रक्षण करावे व त्यांची वृद्धी करून वैद्यकशास्त्रानुसार त्या पशूंचे दूध सेवन करावे व बलवान आणि ऐश्वर्यवान व्हावे. जशी एखादी व्यक्ती नांगर वगैरे साधनांनी शेत नांगरून पाण्याचे सिंचन करते व अन्न इत्यादी पदार्थांनी युक्त होऊन बल व ऐश्वर्याने सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होते तसे प्रशंसायुक्त कार्य करून प्रकाशित व्हावे. ॥ ६ ॥