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ग्रहा॑ऽऊर्जाहुतयो॒ व्यन्तो॒ विप्रा॑य म॒तिम्। तेषां॒ विशि॑प्रियाणां वो॒ऽहमिष॒मूर्ज॒ꣳ सम॑ग्रभमुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। स॒म्पृचौ॑ स्थः॒ सं मा॑ भ॒द्रेण॑ पृङ्क्तं वि॒पृचौ॑ स्थो॒ वि मा॑ पा॒प्मना॑ पृङ्क्तम् ॥४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ग्रहाः॑। ऊ॒र्जा॒हु॒त॒य॒ इत्यू॑र्जाऽआहुतयः। व्यन्तः॑। विप्रा॑य। म॒तिम्। तेषा॑म्। विशि॑प्रियाणा॒मिति॒ विऽशि॑प्रियाणाम्। वः॒। अ॒हम्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। सम्। अ॒ग्र॒भ॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। स॒म्पृचा॒विति॑ स॒म्ऽपृचौ॑। स्थः॒। सम्। मा॒। भ॒द्रेण॑। पृ॒ङ्क्त॒म्। वि॒पृचा॒विति॑ वि॒ऽपृचौ॑। स्थः॒। वि। मा॒। पा॒प्मना॑। पृ॒ङ्क्त॒म् ॥४॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि आप्त विद्वान् की अच्छे प्रकार परीक्षा कर के सङ्ग करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुष ! जैसे (अहम्) मैं गृहस्थजन (विप्राय) बुद्धिमान् पुरुष के सुख के लिये (मतिम्) बुद्धि को देता हूँ, वैसे तू भी किया कर (व्यन्तः) जो सब विद्याओं में व्याप्त (ऊर्जाहुतयः) बल और जीवन बढ़ने के लिये दान देने और (ग्रहाः) ग्रहण करनेहारे गृहस्थ लोग हैं, जैसे (तेषाम्) उन (विशिप्रियाणाम्) अनेक प्रकार के धर्मयुक्त कर्मों में मुख और नासिकावालों के (मतिम्) बुद्धि (इषम्) अन्न आदि और (ऊर्जम्) पराक्रम को (समग्रभम्) ग्रहण कर चुका हूँ, वैसे तुम भी ग्रहण करो। हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे तू (उपयामगृहीतः) राज्य और गृहाश्रम की सामग्री के सहित वर्त्तमान (असि) है, वैसे मैं भी होऊँ। जैसे मैं (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य्य के लिये (जुष्टम्) प्रसन्न (त्वा) आप को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी मुझे ग्रहण कर, जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) घर है, उस (इन्द्राय) पशुओं को नष्ट करने के लिये (जुष्टतमम्) अत्यन्त प्रसन्न (त्वा) तुझे मैं जैसे वह और तुम दोनों युक्त कर्म्म में (सम्पृचौ) संयुक्त (स्थः) हो, वैसे (भद्रेण) सेवने योग्य सुखदायक ऐश्वर्य्य से (मा) मुझ को (संपृङ्क्तम्) संयुक्त करो, जैसे तुम (पाप्मना) अधर्मी पुरुष से (विपृचौ) पृथक् (स्थः) हो, इससे (मा) मुझ को भी (विपृङ्क्तम्) पृथक् करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा और और प्रजा में गृहस्थ लोग बुद्धिमान् सन्तान वा विद्यार्थी के लिये विद्या होने की बुद्धि देते, दुष्ट आचरणों से पृथक् रखते, कल्याणकारक कर्मों को सेवन कराते और दुष्टसङ्ग छुड़ाके सत्सङ्ग कराते हैं, वे ही इस लोक और परलोक के सुख को प्राप्त होते हैं, इनसे विपरीत नहीं ॥४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैराप्तं विद्वांसं सुपरीक्ष्य सङ्गन्तव्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(ग्रहाः) ग्रहीतारो गृहाश्रमिणः (ऊर्जाहुतयः) ऊर्जा बलप्राणनकारिका आहुतयो ग्रहणानि दानानि वा येषां ते (व्यन्तः) वेदविद्यासु व्याप्नुवन्तः (विप्राय) मेधाविने (मतिम्) बुद्धिम् (तेषाम्) (विशिप्रियाणाम्) विविधे धर्म्मे कर्मणि हनुनासिके येषाम्। शिप्रे हनुनासिके वा। (निरु०६.१७) (वः) युष्मभ्यम् (अहम्) गृहस्थो राजा (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (सम्) (अग्रभम्) गृहीतवानसि (उपयामगृहीतः) राज्यगृहाश्रमसामग्रीसहितः (असि) (इन्द्राय) पुरुषार्थे द्रवणाय (त्वा) (जुष्टम्) सेवमानम् (गृह्णामि) (एषः) (ते) (योनिः) सुखनिमित्तम् (इन्द्राय) शत्रुविदारकाय बलाय (त्वा) (जुष्टतमम्) अतिशयेन प्रसन्नम् (सम्पृचौ) राजगृहाश्रमव्यवहाराणां सम्यक् पृङ्क्तारौ राजप्रजाजनौ (स्थः) भवतम् (सम्) (मा) माम् (भद्रेण) भजनीयेन सुखप्रदेनैश्वर्येण (पृङ्क्तम्) स्पर्शं कुरुतम् (विपृचौ) विगतसम्पर्कौ (स्थः) स्यातम् (वि) (मा) माम् (पाप्पना) अधर्मात्मना जनेन (पृङ्क्तम्)। अयं मन्त्रः (शत०५.१.२.८) व्याख्यातः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजाराजपुरुष ! यथाऽहं विप्राय मतिं व्यन्त ऊर्जाहुतयो ग्रहाः सन्ति, यथा तेषां विशिप्रियाणां मतिमिषमूर्जं च समग्रभम्, तथा त्वमपि गृहाण। हे विद्वन् ! यथा त्वमुपयामगृहीतोऽसि, तथाऽहमपि भवेयम्, यथाहमिन्द्राय जुष्टं त्वा गृह्णामि, तथा त्वमपि मां गृहाण। यस्यैष ते योनिरस्ति तमिन्द्राय जुष्टतमं त्वाहं यथा गृह्णामि, तथा त्वमपि मां गृहाण। यथा स त्वं च धर्म्ये व्यवहारे सम्पृचौ स्थस्तथा भद्रेण मा मां सम्पृङ्क्तम्। यथा युवां पाप्मना विपृचौ स्थस्तथाऽनेन मा मामपि विपृङ्क्तम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजप्रजाजना गृहस्था मेधाविने सन्तानाय विद्यार्थिने वा विद्याप्रज्ञां जनयन्ति, दुष्टाचारात् पृथक् स्थायपन्ति, कल्याणकारकं कर्माचारयन्ति, असत्सङ्गं विहाय सत्सङ्गं सेवयन्ति, त एवाभ्युदयनिःश्रेयसे लभन्ते, नातो विपरीताः ॥४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे व गृहस्थ बुद्धिमान संतान किंवा विद्यार्थ्यांना विद्या शिकण्याची प्रेरणा देतात, दुष्ट वर्तनापासून दूर ठेवतात, कल्याण करणारे कर्म करण्यास प्रोत्साहन देतात, दुष्टांची संगती सोडून सज्जनांची संगती धरण्यास उद्युक्त करतात तेच इहलोक व परलोक प्राप्त करतात, याहून विपरीत वागणाऱ्या लोकांना सुख मिळत नाही.