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अ॒र्य॒मणं॒ बृह॒स्पति॒मिन्द्रं॒ दाना॑य चोदय। वाचं॒ विष्णु॒ꣳ सर॑स्वती सवि॒तारं॑ च वा॒जिन॒ꣳ स्वाहा॑ ॥२७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्य्य॒मण॑म्। बृह॒स्पति॑म्। इन्द्र॑म्। दाना॑य। चो॒द॒य॒। वाच॑म्। विष्णु॑म्। सर॑स्वतीम्। स॒वि॒तार॑म्। च॒। वा॒जिन॑म्। स्वाहा॑ ॥२७॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा किनको किसमें प्रेरणा करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप (स्वाहा) सत्यनीति से (दानाय) विद्यादि दान के लिये (अर्यमणम्) पक्षपातरहित न्याय करने (बृहस्पतिम्) सब विद्याओं को पढ़ाने (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्य्ययुक्त (वाचम्) वेदवाणी (विष्णुम्) सब के अधिष्ठाता (सवितारम्) वेदविद्या तथा सब ऐश्वर्य उत्पन्न करने (वाजिनम्) अच्छे बल वेग से युक्त शूरवीर और (सरस्वतीम्) बहुत प्रकार वेदादि शास्त्र विज्ञानयुक्त पढ़ानेवाली विदुषी स्त्री को अच्छे कर्मों में (चोदय) सदा प्रेरणा किया कीजिये ॥२७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सब से कहता है कि राजा आप धर्मात्मा विद्वान् होकर सब न्याय के करनेवाले मनुष्यों को विद्या धर्म्म बढ़ाने के लिये निरन्तर प्रेरणा करे, जिससे विद्या धर्म की बढ़ती से अविद्या और अधर्म दूर हों ॥२७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा कान् कस्मिन् प्रेरयेदित्याह ॥

अन्वय:

(अर्यमणम्) पक्षपातराहित्येन न्यायकर्त्तारम् (बृहस्पतिम्) सकलविद्याध्यापकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्ययुक्तम् (दानाय) (चोदय) प्रेरय (वाचम्) वेदवाणीम् (विष्णुम्) सर्वाधिष्ठातारम् (सरस्वतीम्) बहुविधं सरो वेदादिशास्त्रविज्ञानं विद्यते यस्यास्तां विज्ञानयुक्तामध्यापिकां स्त्रियम् (सवितारम्) वेदविद्यैश्वर्य्योत्पादकम् (च) (वाजिनम्) प्रशस्तबलवेगादियुक्तं शूरवीरम् (स्वाहा) सत्यया नीत्या। अयं मन्त्रः (शत०५.२.२.९) व्याख्यातः ॥२७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजँस्त्वं स्वाहा दानायार्य्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रं वाचं विष्णुं सवितारं वाजिनं सरस्वतीं च सत्कर्मसु सदा चोदय ॥२७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरोऽभिवदति राजा स्वयं धार्मिको विद्वान् भूत्वा सर्वान्न्यायाधीशान् मनुष्यान् विद्याधर्मवर्धनाय सततं प्रेरयेद् यतो विद्याधर्मवृद्ध्याऽविद्याऽधर्मौ निवृत्तौ स्याताम् ॥२७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर सर्वांना असा उपदेश करतो की राजाने स्वतः धार्मिक विद्वान बनले पाहिजे. न्यायी लोकांना विद्या व धर्माची वृद्धी करण्याची सतत प्रेरणा दिली पाहिजे. त्यामुळे विद्येची वृद्धी होईल व अविद्या आणि अधर्म नाहीसे होतील.