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वाज॑स्ये॒मं प्र॑स॒वः सु॑षु॒वेऽग्रे॒ सोम॒ꣳ राजा॑न॒मोष॑धीष्व॒प्सु। ताऽअ॒स्मभ्यं॒ मधु॑मतीर्भवन्तु व॒यꣳ रा॒ष्ट्रे जा॑गृयाम पु॒रोहि॑ताः॒ स्वाहा॑ ॥२३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वाज॑स्यः। इ॒मम्। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। सु॒षु॒वे। सु॒सु॒व॒ इति सुसुवे। अग्रे॑। सोम॑म्। राजा॑नम्। ओष॑धीषु। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। ताः। अ॒स्मभ्य॑म्। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। भ॒व॒न्तु॒। व॒यम्। रा॒ष्ट्रे। जा॒गृ॒या॒म॒। पु॒रोहि॑ता॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑ताः। स्वाहा॑ ॥२३॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उन को इस विषय में कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जैसे मैं (अग्रे) प्रथम (प्रसवः) ऐश्वर्य्ययुक्त होकर (वाजस्य) वैद्यकशास्त्र बोधसम्बन्धी (इमम्) इस (सोमम्) चन्द्रमा के समान सब दुःखों के नाश करनेहारे (राजानम्) विद्या न्याय और विनयों से प्रकाशमान राजा को (सुषुवे) ऐश्वर्य्ययुक्त करता हूँ, जैसे उसकी रक्षा में (ओषधीषु) पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली यव आदि ओषधियों और (अप्सु) जलों के बीच में वर्त्तमान ओषधी हैं, (ताः) वे (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (मधुमतीः) प्रशस्त मधुर वाणीवाली (भवन्तु) हों, जैसे (स्वाहा) सत्य क्रिया के साथ (पुरोहिताः) सब के हितकारी हम लोग (राष्ट्रे) राज्य में निरन्तर (जागृयाम) आलस्य छोड़ के जागते रहें, वैसे तुम भी वर्ता करो ॥२३॥
भावार्थभाषाः - शिष्ट मनुष्यों को योग्य है कि सब विद्याओं को चतुराई, रोगरहित और सुन्दर गुणों में शोभायमान पुरुष को राज्याधिकार देकर, उसकी रक्षा करनेवाला वैद्य ऐसा प्रयत्न करे कि जिससे इसके शरीर बुद्धि और आत्मा में रोग का आवेश न हो। इसी प्रकार राजा और वैद्य दोनों सब मन्त्री आदि भृत्यों और प्रजाजनों को रोगरहित करें, जिससे ये राज्य के सज्जनों के पालने और दुष्टों के ताड़ने में प्रयत्न करते रहें, राजा और प्रजा के पुरुष परस्पर पिता पुत्र के समान सदा वर्त्तें ॥२३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तैरत्र कथं भवितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(वाजस्य) बोधस्य सकाशात् (इमम्) (प्रसवः) ऐश्वर्य्ययुक्तः (सुषुवे) प्रसुव उत्पादये (अग्रे) पूर्वम् (सोमम्) सोममिव सर्वदुःखप्रणाशकं (राजानम्) विद्यान्यायविनयैः प्रकाशमानं स्वामिनम् (ओषधीषु) पृथिवीस्थासु यवादिषु (अप्सु) जलेषु वर्त्तमानाः (ताः) (अस्मभ्यम्) (मधुमतीः) प्रशस्ता मधवो मधुरादयो गुणा विद्यन्ते यासु ताः (भवन्तु) (वयम्) अमात्यादयो भृत्याः (राष्ट्रे) राज्ये (जागृयाम) सचेतना अनलसाः सन्तो वर्त्तेमहि (पुरोहिताः) सर्वेषां हितकारिणः (स्वाहा) सत्यया क्रियया सह ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.२.२.५) व्याख्यातः ॥२३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहमग्रे प्रसवः सन् वाजस्येमं सोमं राजानं सुषुवे, यथा तद्रक्षणेन या ओषधीष्वप्स्वोषधयः सन्ति, ताः अस्मभ्यं मधुमतीर्भवन्तु। यथा स्वाहा पुरोहिता वयं राष्ट्रे सततं तथा यूयमपि वर्त्तध्वम् ॥२३॥
भावार्थभाषाः - शिष्टा मनुष्याः सर्वविद्याचातुर्य्यारोग्यसहितं सोम्यादिगुणालङ्कृतं राजानं संस्थाप्य तद्रक्षको वैद्य एवं प्रवर्त्तेत, यथाऽस्य शरीरे बुद्धावात्मनि च रोगावेशो न स्यात्। इत्थमेव राजवैद्यौ सर्वानमात्यादीन् भृत्यानरोगान् सम्पादयेताम्। यत एते राज्यस्थसज्जनपालने दुष्टताडने सदा प्रयतेरन्, राजा प्रजा च पिता पुत्रवत् सदा वर्त्तेयाताम् ॥२३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सभ्य माणसांनी सर्व विद्यांमध्ये चतुर रोगरहित सुंदर गुणांनी युक्त अशा पुरुषाला राज्याधिकार द्यावा व त्याचे शरीर, बुद्धी, आत्मा रोगरहित व्हावेत असा वैद्याने प्रयत्न करावा. त्याप्रमाणेच राजा व वैद्य यांनी मंत्री, नोकर व प्रजा यांनाही रोगरहित करावे. ज्यामुळे त्यांना राज्यातील सज्जनांचे पालन व दुष्टांचे ताडन करण्याचा प्रयत्न करता येईल. राजा व प्रजा यांनी परस्पर पिता व पुत्र याप्रमाणे व्यवहार करावा.