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उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि सावि॒त्रो᳖ऽसि चनो॒धाश्च॑नो॒धाऽअ॑सि॒ चनो॒ मयि॑ धेहि। जिन्व॑ य॒ज्ञं जिन्व॑ य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य दे॒वाय॑ त्वा सवि॒त्रे ॥७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृही॑त॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सा॒वि॒त्रः। अ॒सि॒। च॒नो॒धा इति॑ चनः॒ऽधाः। च॒नो॒धा इति॑ चनः॒ऽधाः। अ॒सि॒। चनः॑। मयि॑। धे॒हि॒। जिन्व॑। य॒ज्ञम्। जिन्व॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दे॒वाय॑। त्वा॒। स॒वि॒त्रे ॥७॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहाश्रम का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुष ! तुझ से जैसे मैं नियम और उपनियमों से ग्रहण करी गई हूँ, वैसे मैंने आप को (उपयामगृहीतः) विवाह नियम से ग्रहण किया (असि) है, जैसे आप (चनोधाः चनोधाः) अन्न-अन्न के धारण करनेवाले (असि) हैं और (सावित्रः) सविता समस्त सन्तानादि सुख उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर को अपना इष्टदेव माननेवाले (असि) हैं, वैसे मैं भी हूँ। जैसे आप (मयि) मेरे निमित्त (चनः) अन्न को (धेहि) धरिये, वैसे मैं भी आपके निमित्त धारण करूँ। जैसे आप (यज्ञम्) दृढ़ पुरुषों के सेवन योग्य धर्म व्यवहार को (जिन्व) प्राप्त हों, वैसे मैं भी प्राप्त होऊँ और जैसे (सवित्रे) सन्तानों की उत्पत्ति के हेतु (भगाय) धनादि सेवनीय (देवाय) दिव्य ऐश्वर्य के लिये (यज्ञपतिम्) गृहाश्रम को पालनेहारे आप को मैं प्रसन्न रक्खूँ, वैसे आप भी (जिन्व) तृप्त कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विवाहित स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि लाभ के अनुकूल व्यवहार से परस्पर ऐश्वर्य पावें और प्रीति के साथ सन्तानोत्पत्ति का आचरण करें ॥७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनश्च गृहस्थधर्ममुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उपयामगृहीतः) उपयामेन विवाहनियमेन गृहीतः (असि) (सावित्रः) सविता सकलजगदुत्पादकः परमेश्वरो देवता यस्य सः (असि) (चनोधाः) चनांस्यन्नानि दधातीति। चन इत्यन्ननामसु पठितम्। (निरु०६.१६) (चनोधाः) अभ्यासेनाधिकार्थो ग्राह्यः, सर्वेभ्योऽधिकान्नवान् गम्यते। अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यते। (निरु०१०.४२) (असि) (चनः) (मयि) अन्नग्रहणनिमित्तायां विवाहितायां स्त्रियाम् (धेहि) धर (जिन्व) प्राप्नुहि जानीहि वा। जिन्वतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) (यज्ञम्) धर्म्मदृढैः पुरुषैः सङ्गन्तव्यम् (जिन्व) प्रीणीहि (यज्ञपतिम्) गृहाश्रमस्य पालकं पुरुषपालिकां स्त्रियं वा (भगाय) धनाद्याय सेवनीयायैश्वर्य्याय। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (देवाय) दिव्याय कमनीयाय (त्वा) त्वाम् (सवित्रे) सन्तानोत्पादकाय। अयं मन्त्रः (शत०४.४.१.६) व्याख्यातः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुष ! त्वया यथाहं नियमोपनियमैः सङ्गृहीतास्मि, तथा मया त्वमुपयामगृहीतोऽसि, त्वं [चनोधाः] चनोधा असि सावित्रश्चासि, तथाहमस्मि त्वं मयि चनो धेहि। अहमपि त्वयि दध्याम्। त्वं यज्ञं जिन्व अहमपि जिन्वेयम्। सवित्रे भगाय देवाय यज्ञपत्नीं मां जिन्व, एतस्मै यज्ञपतिं त्वामहमपि जिन्वेयम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विवाहितस्त्रीपुरुषौ प्राप्त्यनुकूलव्यवहारेण परस्परमैश्वर्य्यं प्राप्नुयाताम्, प्रीत्या सन्तानोत्पत्तिं चाचरेताम् ॥७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विवाहित स्त्री-पुरुषांनी परस्परांचे हित होईल, असा व्यवहार करून ऐश्वर्य प्राप्त करावे व प्रेमाने संतानांची उत्पत्ती करावी.