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आ प॑वस्व॒ हिर॑ण्यव॒दश्वव॑वत् सोम वी॒रव॑त्। वाजं॒ गोम॑न्त॒माभ॑र॒ स्वाहा॑ ॥६३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। प॒व॒स्व॒। हिर॑ण्यव॒दिति॒ हिर॑ण्यऽवत्। अश्व॑व॒दित्यश्व॑ऽवत्। सो॒म॒। वी॒रव॒दिति॑ वी॒रऽव॑त्। वाज॑म्। गोम॑न्त॒मिति॒ गोऽम॑न्तम्। आ। भ॒र॒। स्वाहा॑ ॥६३॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य किस के तुल्य यज्ञ का सेवन करें, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ऐश्वर्य्य चाहनेवाले गृहस्थ ! तू (स्वाहा) सत्य वाणी वा सत्य क्रिया से (हिरण्यवत्) सुवर्ण आदि पदार्थों के तुल्य (अश्ववत्) अश्व आदि उत्तम पशुओं के समान (वीरवत्) प्रशंसित वीरों के तुल्य (गोमन्तम्) उत्तम इन्द्रियों से सम्बन्ध रखनेवाले (वाजम्) अन्नादिमय यज्ञ का (आभर) आश्रय रख और उससे संसार को (आ) अच्छे प्रकार (पवस्व) पवित्र कर ॥६३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि अपने पुरुषार्थ से सुवर्ण आदि धन को इकट्ठा कर, घोड़े आदि उत्तम पशुओं को रक्खें, तदनन्तर वीरों को रक्खें, क्योंकि जब तक इस सामग्री को नहीं रखते, तब तक गृहाश्रमरूपी यज्ञ परिपूर्ण नहीं कर सकते, इसलिये सदा पुरुषार्थ से गृहाश्रम की उन्नति करते रहें ॥६३॥ इस अध्याय में गृहस्थधर्म सेवन के लिये ब्रह्मचारिणी कन्या को कुमार ब्रह्मचारी का स्वीकार, गृहस्थ धर्म का वर्णन, राजा प्रजा और सभापति आदि का कर्तव्य कहा है, इसलिये इस अध्यायोक्त अर्थ के साथ पूर्व अध्याय में कहे अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्येऽष्टमोऽध्यायः पूर्तिमगात् ॥८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः किंवद् यज्ञः सेवनीय इत्याह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (पवस्व) पवित्रीकुरु (हिरण्यवत्) हिरण्यादिना तुल्यम् (अश्ववत्) अश्वादिभिः समानम् (सोम) ऐश्वर्य्यमिच्छुक गृहस्थ ! (वीरवत्) प्रशस्तवीरसदृशम् (वाजम्) अन्नादिपदार्थमयं यज्ञम्, अत्रार्शआदित्वादच् (गोमन्तम्) प्रशस्तेन्द्रियादिसम्बन्धम् (आ) (भर) धर (स्वाहा) सत्यया वाचा सत्यक्रियया वा ॥६३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! त्वं स्वाहा हिरण्यवदश्ववद् वीरवद् गोमन्तमन्नं वाजमाभर, तेन जगदापवस्व ॥६३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैः पुरुषार्थेन सुवर्णादिधनमासाद्याश्वादयो रक्षणीयास्तदनन्तरं वीराश्च, कुतो यावदेतां सामग्रीं नाभरन्ति, तावद्गृहाश्रमारब्धव्यो यज्ञमप्यलं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति ॥६३॥ अस्मिन्नध्याये गृहस्थधर्मसेवनाय ब्रह्मचारिण्या कन्यया कुमारब्रह्मचारिस्वीकरणं गृहाश्रमधर्मवर्णनं राजप्रजासभापत्यादिकृत्यमुक्तमत एतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी आपल्या पुरुषार्थाने सुवर्ण इत्यादी धनाचा संग्रह करावा. घोडे वगैरे पशूंना पाळावे. नंतर वीर पुरुषांना जवळ करावे. जोपर्यंत या गोष्टी नसतात तोपर्यंत गृहस्थाश्रमरूपी यज्ञ परिपूर्ण होत नाही. त्यासाठी सर्वांनी पुरुषार्थाने गृहस्थाश्रम उन्नत करावा.