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य॒ज्ञस्य॒ दोहो॒ वित॑तः पुरु॒त्रा सोऽअ॑ष्ट॒धा दिव॑म॒न्वात॑तान। स य॑ज्ञ धुक्ष्व॒ महि॑ मे प्र॒जाया॑ रा॒यस्पोषं॒ विश्व॒मायु॑रशीय॒ स्वाहा॑ ॥६२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञस्य॑। दोहः॑। वित॑त॒ इति॒ विऽत॑तः। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। सः। अ॒ष्ट॒धा। दिव॑म्। अ॒न्वात॑ता॒नेत्य॑नु॒ऽआत॑तान। सः। य॒ज्ञ। धु॒क्ष्व॒। महि॑। मे॒। प्र॒जाया॒मिति॑ प्र॒ऽजाया॑म्। रा॒यः। पोष॑म्। विश्व॑म्। आयुः॑। अ॒शी॒य॒। स्वाहा॑ ॥६२॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:62


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यज्ञ का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यज्ञ) सङ्गति करने योग्य विद्वन् ! आप जो (यज्ञस्य) यज्ञ का (पुरुत्रा) बहुत पदार्थों में (विततः) विस्तृत (अष्टधा) आठों दिशाओं से आठ प्रकार का (दोहः) परिपूर्ण सामग्रीसमूह है (सः) वह (दिवम्) सूर्य्य के प्रकाश को (अन्वाततान) ढाँपकर फिर फैलने देता है, (सः) वह आप सूर्य्य के प्रकाश में यज्ञ करनेवाले गृहस्थ तू उस यज्ञ को (धुक्ष्व) परिपूर्ण कर, जो (मे) मेरी (प्रजायाम्) प्रजा में (विश्वम्) सब (महि) महान् (रायः) धनादि पदार्थों की (पोषम्) समृद्धि को वा (आयुः) जीवन को वार-वार विस्तारता है, उस को मैं (स्वाहा) सत्ययुक्त क्रिया से (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥६२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सदा यज्ञ का आरम्भ और समाप्ति करें और संसार के जीवों को अत्यन्त सुख पहुँचावें ॥६२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्यज्ञविषयमाह ॥

अन्वय:

(यज्ञस्य) (दोहः) प्रपूर्णः सामग्रीसमूहः (विततः) विस्तीर्णः (पुरुत्रा) पुरुषु पदार्थेषु (सः) (अष्टधा) दिग्भिरष्टप्रकारः (दिवम्) सूर्य्यप्रकाशम् (अन्वाततान) आच्छाद्य विस्तारयति (सः) सूर्य्यप्रकाशः (यज्ञ) यः सङ्गम्यते तत्सम्बुद्धौ (धुक्ष्व) (महि) महान्तं महद्वा (मे) मम (प्रजायाम्) (रायः) धनादेः (पोषम्) पुष्टिम् (विश्वम्) सर्वम् (आयुः) जीवनम् (अशीय) प्राप्नुयाम (स्वाहा) सत्यवाग्युक्तया क्रियया ॥६२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे यज्ञसम्पादक विद्वन् ! यो यज्ञस्य पुरुत्रा विततोऽष्टधा दोहोऽस्ति, तं दिवमन्वाततान, स त्वं तं यज्ञं धुक्ष्व, यो मे मम प्रजायां विश्वं महि रायस्पोषमायुश्चान्वातनोति तमहं स्वाहामशीय ॥६२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सदा यज्ञारम्भपूर्त्ती कृत्वा प्रजाभ्यो महत्सुखं प्रापणीयमिति ॥६२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी यज्ञाची सुरुवात करून तो पूर्णत्वाला न्यावा व सर्व जीवांना सुखी करावे.