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स॒न्नः सिन्धु॑रवभृ॒थायोद्य॑तः समु॒द्रो᳖ऽभ्यवह्रि॒यमा॑णः सलि॒लः प्रप्लु॑तो॒ ययो॒रोज॑सा स्कभि॒ता रजा॑सि वी॒र्ये᳖भिर्वी॒रत॑मा॒ शवि॑ष्ठा। या पत्ये॑ते॒ऽअप्र॑तीता॒ सहो॑भि॒र्विष्णू॑ऽअग॒न् व॑रुणा पू॒र्वहू॑तौ ॥५९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒न्नः। सिन्धुः॑। अ॒व॒भृ॒थायेत्य॑वऽभृ॒थाय॑। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। स॒मु॒द्रः। अ॒भ्य॒व॒ह्रि॒यमाण॒ इत्य॑भिऽअवह्रि॒यमा॑णः। स॒लि॒लः। प्रप्लु॑त॒ इति॒ प्रऽप्लु॑तः। ययोः॑। ओज॑सा। स्क॒भि॒ता। रजा॑सि। वी॒र्येभिः॑। वी॒रत॒मेति॑ वी॒रऽत॑मा। शवि॑ष्ठा। या। पत्ये॑ते॒ऽइति॒ पत्ये॑ते। अप्र॑ती॒तेत्यप्र॑तिऽइता। सहो॑भि॒रिति॒ सह॑ऽभिः। विष्णूऽइति॒ विष्णू॑। अ॒ग॒न्। वरु॑णा। पू॒र्वहू॑ता॒विति॑ पू॒र्वऽहू॑तौ ॥५९॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:59


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ के कर्म्म में यज्ञादि व्यवहार का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जिन्होंने (अवभृथाय) यज्ञान्त स्नान और अपने आत्मा के पवित्र करने के लिये (अभ्यवह्रियमाणः) भोगने योग्य (सलिलः) जिसमें उत्तम जल है, वह व्यवहार (उद्यतः) नियम से सम्पादन किया (सिन्धुः) नदियाँ (सन्नः) निर्माण कीं (समुद्रः) समुद्र (प्रप्लुतः) अपने उत्तमों गुणों से पाया है, वे विद्वान् लोग (ययोः) जिन के (ओजसा) बल से (रजांसि) लोक-लोकान्तर (स्कभिता) स्थित हैं, (या) जो (वीर्येभिः) और पराक्रमों से (वीरतमा) अत्यन्त वीर (शविष्ठा) नित्य बल सम्पादन करनेवाले (सहोभिः) बलों से (अप्रतीता) मूर्खों को जानने अयोग्य (विष्णू) व्याप्त होनेहारे (वरुणा) अतिश्रेष्ठ स्वीकार करने योग्य (पूर्वहूतौ) जिस का सत्कार पूर्व उत्तम विद्वानों ने किया हो, जो (पत्येते) श्रेष्ठ सज्जनों को प्राप्त होते हैं, उन यज्ञकर्म्म, भक्ष्य पदार्थ और विद्वानों को (अगन्) प्राप्त होते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं ॥५९॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ आदि व्यवहारों के विना गृहाश्रम में सुख नहीं होता ॥५९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गार्हस्थ्यकर्म्मणि यज्ञादिव्यवहारमाह ॥

अन्वय:

(सन्नः) अवस्थापितः। सन्न इति पदं महीधरेण भ्रान्त्या पूर्वस्य मन्त्रस्यान्ते स्वीकृतम् (सिन्धुः) नदी। सिन्धव इति नदीनामसु पठितम्। (निघं०१.१३) (अवभृथाय) पवित्रीकरणाय यज्ञान्तस्नानाय वा (उद्यतः) उत्कृष्टतया यतः (समुद्रः) अन्तरिक्षम्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। (निघं०१.३) (अभ्यवह्रियमाणः) भुज्यमानः (सलिलः) शुद्धं जलं विद्यते यस्मिन् सः। अर्शआदित्वादच्। सलिलमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (प्रप्लुतः) प्रकृष्टगुणैः प्राप्तः (ययोः) होतृयजमानयोः प्रशंसिता गुणाः सन्ति (ओजसा) बलेन (स्कभिता) स्तम्भितानि धृतानि (रजांसि) लोकाः (वीर्य्येभिः) (वीरतमा) अतिशयेन वीरौ। अत्र सर्वत्राकारादेशः (शविष्ठा) अतिशयेन नित्यबलसाधकौ (या) यौ (पत्येते) श्रेष्ठैः प्राप्येते (अप्रतीता) अप्रतीतगुणौ (सहोभिः) बलादिभिः (विष्णू) व्याप्तिशीलौ (अगन्) गच्छन्तु प्राप्नुवन्तु, अत्र गमधातोर्लोडर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणश०। (अष्टा०२.४.८०) इति च्लेर्लुगनुनासिकलोपश्च (वरुणा) श्रेष्ठौ (पूर्वहूतौ) पूर्वैः शिष्टैर्विद्वद्भिराहूतौ। अयं मन्त्रः (शत०१२.६.१.३४-३६) व्याख्यातः ॥५९॥

पदार्थान्वयभाषाः - यैरवभृथायाभ्यवह्रियमाणः सलिल उद्यतः सिन्धुः सन्नः समुद्रः प्रप्लुतः क्रियते, ययोरोजसा रजांसि स्कभिता स्कभितानि, या वीर्य्येभिर्वीरतमा शविष्ठा सहोभिरप्रतीता विष्णू वरुणा पूर्वहूतौ पत्येते तावगंस्ते सुखिनो भवन्ति ॥५९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्याणां यज्ञादिव्यवहारेण विना गार्हस्थ्यकर्म्मणि सुखं न जायते ॥५९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - यज्ञ इत्यादी कर्माशिवाय गृहस्थाश्रमात अत्यंत सुख प्राप्त होऊ शकत नाही.