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इ॒ह रति॑रि॒ह र॑मध्वमि॒ह धृति॑रि॒ह स्वधृ॑तिः॒ स्वाहा॑। उ॒प॒सृ॒जन् ध॒रुणं॑ मा॒त्रे ध॒रुणो॑ मा॒तरं॒ धय॑न्। रा॒यस्पोष॑म॒स्मासु॑ दीधर॒त् स्वाहा॑ ॥५१॥

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पद पाठ

इ॒ह। रतिः॑। इ॒ह। र॒म॒ध्व॒म्। इ॒ह। धृतिः॑। इ॒ह। स्वधृ॑ति॒रिति॒ स्वऽधृ॑तिः। स्वाहा॑। उ॒प॒सृ॒जन्नित्यु॑पऽसृ॒जन्। ध॒रुण॑म्। मा॒त्रे। ध॒रुणः॑। मा॒तर॑म्। धय॑न्। रा॒यः। पोष॑म्। अ॒स्मासु॑। दी॒ध॒र॒त्। स्वाहा॑ ॥५१॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:51


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गार्हस्थ्य धर्म्म में विशेष उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्थो ! तुम लोगों की (इह) इस गृहाश्रम में (रतिः) प्रीति (इह) इसमें (धृतिः) सब व्यवहारों की धारणा (इह) इसी में (स्वधृतिः) अपने पदार्थों की धारणा (स्वाहा) तथा तुम्हारी सत्य वाणी और सत्य क्रिया हो तुम (इह) इस गृहाश्रम में (रमध्वम्) रमण करो। हे गृहाश्रमस्थ पुरुष ! तू सन्तानों की माता, जो कि तेरी विवाहित स्त्री है, उस (मात्रे) पुत्र का मान करनेवाली के लिये (धरुणम्) सब प्रकार से धारण-पोषण कराने योग्य गर्भ को (उपसृजन्) उत्पन्न कर और वह (धरुणः) उक्त गुणवाला पुत्र (मातरम्) उस अपनी माता का (धयन्) दूध पीवे, वैसे (अस्मासु) हम लोगों के निमित्त (रायः) धन की (पोषम्) समृद्धि को (स्वाहा) सत्यभाव से (दीधरत्) उत्पन्न कीजिये ॥५१॥
भावार्थभाषाः - जब तक राजा आदि सभ्यजन वा प्रजाजन सत्य धैर्य्य वा सत्य से जोड़े हुए पदार्थ वा सत्य व्यवहार में अपना वर्त्ताव न रक्खें, तब तक प्रजा और राज्य के सुख नहीं पा सकते और जब तक राजपुरुष तथा प्रजापुरुष पिता और पुत्र के तुल्य परस्पर प्रीति और उपकार नहीं करते, तब तक निरन्तर सुख भी प्राप्त नहीं हो सकता ॥५१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गार्हस्थ्यविषये विशेषमाह ॥

अन्वय:

(इह) अस्मिन् गृहाश्रमे (रतिः) रमणम् (इह) (रमध्वम्) (इह) (धृतिः) सर्वेषां व्यवहाराणां धारणा (इह) (स्वधृतिः) स्वेषां पदार्थानां धारणाम् (स्वाहा) सत्या वाक् क्रिया वा (उपसृजन्) समीपं प्रापयन्निव (धरुणम्) धर्त्तव्यं पुत्रम् (मात्रे) मान्यकर्त्र्ये (धरुणः) धर्त्ता (मातरम्) मान्यप्रदाम् (धयन्) तस्याः पयः पिबन् (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष्टिम् (अस्मासु) (दीधरत्) धारय, अत्र लोडर्थे लुङडभावश्च (स्वाहा) सत्यया वाचा। अयं मन्त्रः (शत०४.६.९.८-९) व्याख्यातः ॥५१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्थाः ! युष्माकमिह रतिरिह धृतिरिह स्वधृतिः स्वाहा चास्तु, यूयमिह रमध्वम्। हे गृहिँस्त्वमपत्यस्य मात्रेयं धरुणं गर्भमुपसृजन् स्वगृहे रमस्व, स धरुणो मातरं धयन्निवास्मासु रायस्पोषं स्वाहा दीधरत् ॥५१॥
भावार्थभाषाः - यावद् राजादयः सभ्याः प्रजाजनाश्च सत्ये धैर्य्ये, सत्येनोपार्ज्जितेषु पदार्थेषु, धर्म्मे व्यवहारे च न वर्त्तन्ते, तावत् प्रजासुखं राज्यसुखं च प्राप्तुं न शक्नुवन्ति। यावद् राजपुरुषाः प्रजापुरुषाश्च पितृपुत्रवत् परस्परं प्रीत्युपकारं न कुर्वन्ति, तावत् सुखं क्व ॥५१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जोपर्यंत राजा इत्यादी सभ्य पुरुष किंवा प्रजा सत्यासाठी धैर्य धारण करत नाहीत व सत्य व्यवहाराचे पालन करत नाहीत तोपर्यंत प्रजा राज्याचे सुख भोगू शकत नाही. जोपर्यंत राजपुरुष व प्रजा हे पिता आणि पुत्र यांच्यासारखे प्रेमळपणाने वागत नाहीत, परस्पर सहकार्य करत नाहीत तोपर्यंत ते सतत सुख भोगू शकत नाहीत.