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उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽस्य॒ग्नये॑ त्वा गाय॒त्रछ॑न्दसं गृह्णा॒मीन्द्रा॑य त्वा त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दसं गृह्णामि॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जग॑च्छन्दसं गृह्णाम्यनु॒ष्टुप्ते॑ऽभिग॒रः ॥४७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। गा॒य॒त्रछ॑न्दस॒मिति॑ गाय॒त्रऽछन्द॑सम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दसम्। त्रि॒स्तुप्छ॑न्दस॒मिति॑ त्रि॒स्तुप्ऽछ॑न्दसम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जग॑च्छन्दस॒मि॑ति॒ जग॑त्ऽछन्दसम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। ते॒। अ॒भि॒ग॒र। इत्य॑भिऽग॒रः ॥४७॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी प्रकारान्तर से उसी विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वकर्म्मन्) अच्छे-अच्छे कर्म्म करनेवाले जन ! मैं जो (ते) आप का (अनुष्टुप्) अज्ञान का छुड़ानेवाला (अभिगरः) सब प्रकार से विख्यात प्रशंसावाक्य है, उन अग्नि आदि पदार्थों के गुण कहनेवाले गायत्री छन्दयुक्त वेदमन्त्रों के अर्थ को जाननेवाले (त्वा) आप को (अग्नये) अग्नि आदि पदार्थों के गुण जानने के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, वा (त्रिष्टुप्छन्दसम्) परम ऐश्वर्य्य देनेवाले त्रिष्टुप् छन्दयुक्त वेदमन्त्रों का अर्थ करानेहारे (त्वा) आपको (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, (जगच्छन्दसम्) समस्त जगत् के दिव्य-दिव्य गुण, कर्म्म और स्वभाव के बोधक वेदमन्त्रों का अर्थविज्ञान करानेवाले (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) अच्छे-अच्छे गुण, कर्म्म और स्वभावों के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ, (उपयामगृहीतः) उक्त सब काम के लिये हम लोगों ने आप को सब प्रकार स्वीकार कर रक्खा (असि) है ॥४७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से (विश्वकर्म्मन्) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि आदि पदार्थविद्या साधन करानेवाली क्रियाओं का उत्तम बोध करानेवाले गायत्री आदि छन्दयुक्त ऋग्वेदादि वेदों के बोध होने के लिये उत्तम पढ़ानेवाले का सेवन करें, क्योंकि उत्तम पढ़ानेवाले के विना किसी को विद्या नहीं प्राप्त हो सकती ॥४७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेण तदेवाह ॥

अन्वय:

(उपयामगृहीतः) साङ्गोपाङ्गसाधनैः स्वीकृतः (अग्नये) अग्न्यादिपदार्थविज्ञानाय (त्वा) त्वाम् (गायत्रछन्दसम्) गायत्रीछन्दोऽर्थविज्ञापकम् (गृह्णामि) वृणोमि (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यप्राप्तये (त्वा) त्वाम् (त्रिष्टुप्छन्दसम्) त्रिष्टुप्छन्दोऽर्थबोधयितारम् (गृह्णामि) (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) दिव्यगुणकर्म्मस्वभावेभ्यः (जगच्छन्दसम्) जगच्छन्दोऽवगमकम् (गृह्णामि) (अनुष्टुप्) अनुष्टोभते स्तभ्नात्यज्ञानं यः (ते) तव (अभिगरः) अभिगतस्त्वः। अयं मन्त्रः (शत०११.५.९.७) व्याख्यातः ॥४७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विश्वकर्म्मन्नहं यस्य ते तवानुष्टुबभिगरोऽस्ति, तं गायत्रच्छन्दसं त्वाग्नये गृह्णामि, त्रिष्टुप्छन्दसं त्वेन्द्राय गृह्णामि, जगच्छन्दसं त्वा विश्वेभ्यो देवेभ्यो गृह्णामि। एतदर्थमस्माभिस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि ॥४७॥
भावार्थभाषाः - अत्र मन्त्रे पूर्वस्मान्मन्त्राद् विश्वकर्म्मन्निति पदमनुवर्त्तते। मनुष्यैरग्न्यादिविद्यासाधनक्रियाविज्ञापकानां गायत्र्यादिछन्दोन्वितानामृग्वेदादीनां बोधायाध्यापकः संसेवनीयोऽस्ति, नह्येतेन विना कस्यचिद् विद्याप्राप्तिर्भवितुं शक्या ॥४७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात मागील मंत्रातील (विश्वकर्मन्) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. माणसांनी अग्नी इत्यादीबाबतचे पदार्थ विज्ञान कळण्यासाठी व गायत्री इत्यादी छन्दयुक्त ऋग्वेद वगैरे वेदमंत्रांचा बोध होण्यासाठी उत्तम विद्वानांची संगत धरावी, कारण ऋग्वेद इत्यादी शिकविणाऱ्याखेरीज उत्तम विद्या प्राप्त होऊ शकत नाही.