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वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒मृध॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒मृधे॑ ॥४४॥

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पद पाठ

वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒दास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑ ॥४४॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:44


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सिंह जैसे पीछे लौट कर देखता है, इस प्रकार गृहस्थ कर्म्म के निमित्त राजपक्ष में कुछ उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सेनापते ! तू (नः) हमारे (पृतन्यतः) हम से युद्ध करने के लिये सेना की इच्छा करनेहारे शत्रुओं को (जहि) मार और उन (नीचा) नीचों को (यच्छ) वश में ला और जो शत्रुजन (अस्मान्) हम लोगों को (अभिदासति) सब प्रकार दुःख देवे उस (विमृधः) दुष्ट को (तमः) जैसे अन्धकार को सूर्य्य नष्ट करता है, वैसे (अधरम्) अधोगति को (गमय) प्राप्त करा, जिस (ते) तेरा (एषः) उक्त कर्म्म करना (योनिः) राज्य का कारण है, इससे तू हम लोगों से (उपयामगृहीतः) सेना आदि सामग्री से ग्रहण किया हुआ (असि) है, इसी से (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस में बड़े-बड़े युद्ध करनेवाले शत्रुजन हैं, (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य देनेवाले उस युद्ध के लिये स्वीकार करते हैं (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस के शत्रु नष्ट हो गये हैं, उस (इन्द्राय) राज्य के लिये प्रेरणा देते हैं अर्थात् अधर्म्म से अपना वर्त्ताव न वर्त्ते ॥४४॥
भावार्थभाषाः - जो खोटे काम करनेवाला पुरुष अनेक प्रकार से अपने बल को उन्नति देकर सब को दुःख देना चाहे, उस को राजा सब प्रकार से दण्ड दे। यदि फिर भी वह अपनी अत्यन्त खोटाइयों को न छोड़े तो उसको मार डाले अथवा नगर से इसको दूर निकाल बन्द रक्खे ॥४४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सिंहावलोकन्यायेन गृहस्थधर्म्मे राजपक्षे किंचिदाह ॥

अन्वय:

(वि) विशेषेण (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सेनाध्यक्ष ! (मृधः) शत्रून् (जहि) (नीचा) दुष्टकारिणः (यच्छ) निगृह्णीहि (पृतन्यतः) आत्मनः सेनामिच्छतः (यः) (अस्मान्) (अभिदासति) सर्वत उपक्षयति। दसु उपक्षये, अत्र वर्णव्यत्ययेनाकारस्य स्थान आकारः। (अधरम्) अधोगतिम् (गमय) अत्र संहितायाम्। (अष्टा०६.३.११४) इति दीर्घः (तमः) अन्धकारम् (उपयामगृहीतः) सेनादिसामग्रीसङ्गृहीतः (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्रदाय (त्वा) (विमृधे) विशिष्टा मृधः शत्रवो यस्मिंस्तस्मै संग्रामाय (एषः) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) परमानन्दप्राप्तये (त्वा) त्वाम् (विमृधे) विगतत्रवे। अयं मन्त्रः (शत०४.५.६.४) व्याख्यातः ॥४४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र सेनापते ! त्वं नोऽस्माकं विमृधो जहि, पृतन्यतो नीचा नीचान् यच्छ। यः शत्रुरस्मानभिदासति तं तमस्सूर्य्य इवाधरं गमय। यस्य ते तवैष योनिरस्ति, स त्वमस्माभिरुपयामगृहीतोऽसि, अत एवेन्द्राय विमृधे त्वां स्वीकुर्म्मो विमृध इन्द्राय त्वा नियोजयामश्च ॥४४॥
भावार्थभाषाः - यो दुष्टकर्म्मशीलपुरुषोऽनेकधा बलमुन्नीय सर्वान् पीडयितुमिच्छति, तं राजा सर्वथा दण्डेयत्। यदि स प्रबलतरोपाधिशीलतां न त्यजेत्, तर्हि राष्ट्रादेनं दूरं गमयेद् विनाशयेद्वा ॥४४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - वाईट खोटी कर्मे करणारा पुरुष जर बलवान बनून इतरांना दुःखी करत असेल तर राजाने त्याला दंड द्यावा. जर एवढे करूनही तो वाईट काम सोडत नसेल तर त्याला मृत्युदंड द्यावा किंवा शहराबाहेर दूर कैद करून ठेवावे.