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इन्द्र॒मिद्धरी॑ वह॒तोऽप्र॑तिधृष्टशवसम्। ऋषी॑णां च स्तु॒तीरुप॑ य॒ज्ञं च॒ मानु॑षाणाम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। इत्। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। व॒ह॒तः॒। अप्र॑तिधृष्टशवस॒मिति॒ अप्र॑तिऽधृष्टशवसम्। ऋषी॑णाम्। च॒। स्तु॒तीः। उप॑। य॒ज्ञम्। च॒। मानु॑षाणाम्। उपयामेत्यारभ्य पूर्ववत् ॥३५॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:35


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोमपाः) ऐश्वर्य्य की रक्षा और (इन्द्र) शत्रुओं का विनाश करनेवाले सभाध्यक्ष ! आप जो (हरी) हरणकारक बल और आकर्षणरूप घोड़ों से (अप्रतिधृष्टशवसम्) जिसने अपना अच्छा बल बढ़ा रक्खा है, उस (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्य बढ़ाने और सेना रखनेवाले सेना समूह को (वहतः) बहाते हैं, उनसे युक्त होकर (ऋषीणाम्) वेदमन्त्र जाननेवाले विद्वानों और (च) वीरों के (स्तुतीः) गुणों के ज्ञान और (मानुषाणाम्) साधारण मनुष्यों के (यज्ञम्) सङ्गम करने योग्य व्यवहार और (च) उन की पालना करो और (उप) समीप प्राप्त हो, जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) निमित्त राजधर्म्म है, जो तू (उपयामगृहीतः) सब सामग्री से सयुंक्त है, उस (त्वा) तुझ को (षोडशिने) षोडश कलायुक्त (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य्य के लिये प्रजा, सेनाजन आश्रय लेवें और हम भी लेवें ॥३५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से (इन्द्र) (सोमपाः) (चर) इन तीन पदों की योजना होती है। राजा राज्यकर्म्म में विचार करनेवाले जन प्रजाजनों को यह योग्य है कि प्रशंसा करने योग्य विद्वानों से विद्या और उपदेश पाकर औरों का उपकार सदा किया करें ॥३५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवर्द्धकं सेनारक्षकम् (इत्) एव (हरी) शिक्षितावश्वौ (वहतः) (अप्रतिधृष्टशवसम्) धृष्टं प्रगल्भं शवो बलं येन तं प्रतीति (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थद्रष्टॄणां विदुषाम् (च) वीराणाम् (स्तुतीः) गुणस्तवनानि (उप) (यज्ञम्) सङ्गमनीयं व्यवहारम् (च) (मानुषाणाम्) (उपयामेति) पूर्ववत्। अयं मन्त्रः (शत०४.४.५.१ व्याख्यातः ॥३५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोमपास्त्वं षोडशिन इन्द्राय यौ हरी अप्रतिधृष्टशवसमिन्द्र वहतस्ताभ्यामृषीणां चाद् वीराणां स्तुतीर्मानुषाणां यज्ञं चात् पालनमुपचर, यस्य ते तवैष योनिरस्ति, यस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि, तं त्वां षोडशिन इन्द्राय जना उपाश्रयन्तु वयमपि त्वामाश्रयेम ॥३५॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् इन्द्र सोमपाश्चरेति पदत्रयमनुवर्त्तते। राज्ञो राजसभासभ्यानां प्रजास्थानां च जनानामिदं योग्यमस्ति प्रशंसनीयविदुषां सकाशाद् विद्योपदेशं प्राप्यान्येषामुपकारादिकं च सततं कुर्य्युः ॥३५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील (इन्द्र) (सोमपाः) (चर) या तीन पदांची योजना केलेली आहे. राजा, राज्यासंबंधी विचार करणारे विचाररवंत व प्रजा यांनी योग्य अशा प्रशंसित विद्वानांकडून विद्या व उपदेश प्राप्त करावा आणि सर्वांवर उपकार करावा.