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यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा। अथा॑ नऽइन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं॑ चर। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒क्ष्व। हि। के॒शिना॑। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। वृष॑णा। क॒क्ष्य॒प्रेति॑ कक्ष्य॒ऽप्रा। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। सो॒मपा॒ इति॑ सोमऽपाः। गि॒राम्। उप॑श्रुति॒मित्युप॑ऽश्रुतिम्। च॒र॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३४॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:34


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजविषय में उक्त प्रकार से गृहाश्रम का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोमपाः) ऐश्वर्य्य की रक्षा करने और (इन्द्र) शत्रुओं का विनाश करनेवाले ! तुम (केशिना) जिनके अच्छे-अच्छे बाल हैं, उन (वृषणा) बैल के समान बलवान् (कक्ष्यप्रा) अभीष्ट देश तक पहुँचानेवाले (हरी) यान के चलानेहारे घोड़ों को (रथे) रथ में (युक्ष्व) जोड़ो (अथ) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों की (गिराम्) विनयपत्रों को (उपश्रुतिम्) प्रार्थना को (हि) चित्त देकर (चर) जानो। आप (उपयमागृहीतः) गृहाश्रम की सामग्री को ग्रहण किये हुए (असि) हैं, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देनेवाले गृहाश्रम के लिये (त्वा) तुझे आज्ञा देता हूँ ॥३४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से ‘रथम्’ यह पद अर्थ से आता है। प्रजा, सेना और सभा के मनुष्य सभाध्यक्ष से ऐसे कहें कि आपको शत्रुओं के विनाश और राज्य भर में न्याय रखने के लिये घोड़े आदि सेना के अङ्गों की अच्छी शिक्षा देकर आनन्दित और बलवाले रखने चाहियें, फिर हम लोगों के विनयपत्रों को सुनकर राज्य और ऐश्वर्य्य की भी रक्षा करनी चाहिये ॥३४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषये प्रतिपादितप्रकारेण गृहस्थधर्म्ममाह ॥

अन्वय:

(युक्ष्व) (हि) खलु (केशिना) प्रशस्ताः केशा विद्यन्ते ययोस्तौ, अत्र सर्वत्र सुपां सुलुक्। (अष्टा०७.१.३९) इति विभक्तेराकारः (हरी) यानस्य हरणशीलौ (वृषणा) वृषवद्बलिष्ठौ (कक्ष्यप्रा) कक्ष्यं प्रातः पिपूर्तः (अथ) आनन्तर्य्ये (नः) अस्माकम् (इन्द्र) शत्रुविदारक सेनाध्यक्ष ! (सोमपाः) ऐश्वर्य्यरक्षक ! (गिराम्) वाचम् (उपश्रुतिम्) उपगतां श्रूयमाणाम् (चर) विजानीहि। अत्र चर इत्यस्य गत्यर्थत्वात् प्राप्त्यर्थो गृह्यते (उपयामगृहीतः) इत्यादि पूर्ववत्। अयं मन्त्रः (शत०४.५.३.१०-११) व्याख्यातः ॥३४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोमपा इन्द्र ! त्वं केशिना वृषणा कक्ष्यप्रा हरी रथे युक्ष्व। अथेत्यनन्तरं नोऽस्माकं गिरामुपश्रुतिं हि चर। उपयामेत्यस्यान्वयोऽपि पूर्ववत् ॥३४॥
भावार्थभाषाः - अस्मिन्मन्त्रे रथमिति पदस्य सम्बन्धः। प्रजासभासेनाजनाः सभाध्यक्षं ब्रूयुः। शुचिना त्वया न्यायस्थितये चत्वारि सेनाङ्गानि सुशिक्षितानि हृष्टपुष्टानि रक्षणीयानि, पुनरस्माकं प्रार्थनानुकूल्येन राजैश्वर्य्यरक्षापि कार्य्येति ॥३४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘रथं’ या शब्दाचा अर्थ अभिप्रेत आहे. प्रजा, सेना, सभा यांनी राजाला अशी सूचना केली पाहिजे की, शत्रूंचा नाश करण्यासाठी व राज्यात न्याय टिकण्यासाठी घोडे इत्यादी सेनेच्या विभागाला प्रशिक्षण द्यावे व आनंदी ठेवावे तसेच बलवानही बनवावे. वरील सर्व लोकांच्या विनंतीपत्राचा विचार करून राजाने राज्य व ऐश्वर्य यांचे रक्षण केले पाहिजे.