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म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ नऽइ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः ॥३२॥

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पद पाठ

म॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मभि॒रिति॒ भरी॑मऽभिः ॥३२॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री-पुरुष ! तुम दोनों (मही) अति प्रशंसनीय (द्यौः) दिव्य पुरुष की आकृतियुक्त पति और अति प्रशंसनीय (पृथिवी) बढ़े हुए शील और क्षमा धारण करने आदि की सामर्थ्यवाली तू (भरीमभिः) धीरता और सब को सन्तुष्ट करनेवाले गुणों से युक्त व्यवहारों वा पदार्थों से (नः) हमारा (च) औरों का भी (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्वानों के प्रशंसा करने योग्य गृहाश्रम को (मिमिक्षताम्) सुखों से अभिषिक्त और (पिपृताम्) परिपूर्ण करना चाहो ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्यलोक जलादि पदार्थों को खींच और वर्षा कर रक्षा और पृथिवी आदि पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे यह पति श्रेष्ठ गुण और पदार्थों का संग्रह करके देने से रक्षा और विद्या आदि गुणों को प्रकाशित करता है तथा जिस प्रकार यह पृथिवी सब प्राणियों को धारण कर उन की रक्षा करती है, वैसे स्त्री गर्भ आदि व्यवहारों को धारण कर सब की पालना करती है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष इकट्ठे होकर स्वार्थ को सिद्ध कर मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों को भी सुख देवें ॥३२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गार्हस्थ्यकर्म्मोपदेशमाह ॥

अन्वय:

(मही) महती पूज्या (द्यौः) दिव्या पुरुषाकृतिः (पृथिवी) विस्तृतशीला क्षमाधारणादिशक्तिमती (च) (नः) अस्माकम् (इमम्) वर्त्तमानम् (यज्ञम्) विद्वत्पूज्यं गृहाश्रमम् (मिमिक्षताम्) सुखैः सेक्तुमिच्छताम् (पिपृताम्) पिपूर्त्तः (नः) अस्माकम् (भरीमभिः) धारणपोषणादिगुणयुक्तैर्व्यवहारैर्वा पदार्थैः सह। अयं मन्त्रः (शत०४.५.२.१८) व्याख्यातः ॥३२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे दम्पती ! भवन्तौ मही द्यौः महान् प्रकाशमानः पतिः मही पृथिवी स्त्री च त्वं भरीमभिर्नोऽस्माकं चादन्येषामिमं यज्ञं मिमिक्षतां पिपृताञ्च ॥३२॥
भावार्थभाषाः - यथा सूर्य्यो जलाद्याकृष्य वर्षित्वा पाति, पृथिव्यादिपदार्थान् प्रकाशयति, तद्वदयम्पतिः सद्गुणान् पदार्थान् सङ्गृह्य तद्दानेन रक्षेत्, विद्यादिगुणान् प्रकाशयेत्। यथेयं पृथिवी सर्वान् प्राणिनो धृत्वा पालयति, तथेयं स्त्री गर्भादीन् धृत्वा पालयेत् एवं सहितौ भूत्वा स्वार्थं संसाध्य मनोवाक्कर्म्मभिरन्यान् सर्वान् प्राणिनः सततं सुखयेताम् ॥३२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याप्रमाणे सूर्य जलादि पदार्थांना ओढून घेतो व पर्जन्याचा वर्षाव करून सर्वांचे रक्षण करतो आणि पृथ्वी इत्यादी पदार्थांना प्रकाशित करतो. त्याप्रमाणे पती श्रेष्ठ गुणांचा व पदार्थांचा संग्रह करून रक्षण करतो आणि विद्या इत्यादी गुण प्रकट करतो. जशी पृथ्वी सर्व प्राण्यांना धारण करून त्याचे पालन करते. याप्रमाणे स्त्री व पुरुष यांनी एकत्रितपणे गृहस्थाश्रम सिद्ध करावा आणि मन, वचन, कर्माने सर्व प्राण्यांना सुख द्यावे.