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पु॒रु॒द॒स्मो विषु॑रूप॒ऽइन्दु॑र॒न्तर्म॑हि॒मान॑मानञ्ज॒ धीरः॑। एक॑पदीं द्वि॒पदीं॑ त्रि॒पदीं॒ चतु॑ष्पदीम॒ष्टाप॑दीं॒ भुव॒नानु॑ प्रथन्ता॒ स्वाहा॑ ॥३०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रु॒द॒स्म इति॑ पुरुऽद॒स्मः। वि॑षुरूप॒ इति॒ विषु॑ऽरूपः। इन्दुः॑। अ॒न्तः। म॒हि॒मान॑म्। आ॒न॒ञ्ज॒। धीरः॑। एक॑पदी॒मित्येक॑ऽपदीम्। द्वि॒पदी॒मिति॑ द्वि॒ऽपदीम्॑। त्रि॒पदी॒मिति॒ त्रि॒ऽपदी॑म्। चतु॑ष्पदीम्। चतुः॑पदी॒मिति॒ चतुः॑ऽपदीम्। अ॒ष्टाप॑दी॒मित्य॒ष्टाऽप॑दीम्। भुव॑ना। अनु॒। प्र॒थ॒न्ता॒म्। स्वाहा॑ ॥३०॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुदस्मः) जिसके गुणों से बहुत दुःखों का नाश होता है (विषुरूपः) जिसने जन्मक्रम से अनेक रूप-रूपान्तर विद्या-विषयों में प्रवेश किया है (इन्दुः) जो परमैश्वर्य्य को सिद्ध करनेवाला (धीरः) समस्त व्यवहारों में ध्यान देने हारा पुरुष है, वह गृहस्थधर्म्म से विवाही हुई अपनी स्त्री के (अन्तः) भीतर (महिमानम्) प्रशंसनीय ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि शुभ कर्मों से संस्कार प्राप्त होने योग्य गर्भ को (आनञ्ज) कामना करे, गृहस्थ लोग ऐसे सृष्टि की उत्पत्ति का विधान करके जिस (एकपदीम्) जिस में एक यह ‘ओम्’ पद (द्विपदीम्) जिस में दो अर्थात् संसार सुख और मोक्षसुख (त्रिपदीम्) जिससे वाणी, मन और शरीर तीनों के आनन्द (चतुष्पदीम्) जिससे चारों धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष (अष्टापदीम्) और जिससे आठों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण तथा ब्रह्मचर्य्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चारों आश्रम प्राप्त होते हैं, उस (स्वाहा) समस्त विद्यायुक्त वाणी को जान कर सब गृहस्थ जन (भुवना) जिनमें प्राणीमात्र निवास किया करते हैं, उन घरों की (प्रथन्ताम्) प्रशंसा करें और उससे सब मनुष्यों को (अनु) अनुकूलता से बढ़ावें ॥३०॥
भावार्थभाषाः - विवाह किये हुए स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि गृहाश्रम की विद्या को सब प्रकार जानकर उसके अनुसार सन्तानों को उत्पन्न कर मनुष्यों को बढ़ा और उन को ब्रह्मचर्य्य नियम से समस्त अङ्ग-उपाङ्ग सहित विद्या का ग्रहण करा के उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होके आनन्दित करें ॥३०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गर्भव्यवस्थामाह ॥

अन्वय:

(पुरुदस्मः) पुरुर्बहुर्दस्म उपक्षयो दुःखानां यस्मात् सः (विषुरूपः) विषूणि व्याप्तानि रूपाणि येन सः (इन्दुः) परमैश्वर्य्यकारी (अन्तः) आभ्यन्तरे (महिमानम्) पूज्यं ब्रह्मचर्य्यजितेन्द्रियत्वादिशुभकर्म्मसंस्कारजन्यम् (आनञ्ज) अञ्जयेत कामयेत, अत्र लिङर्थे लिट् (धीरः) सर्वव्यवहारध्यानशीलः (एकपदीम्) एकमोमिति पदं प्राप्तव्यं यस्यां ताम् (द्विपदीम्) द्वे अभ्युदये निःश्रेयसे सुखे पदे यस्यां ताम् (त्रिपदीम्) त्रीणि वाङ्मनःशरीरस्थानि सुखानि यस्यास्ताम् (चतुष्पदीम्) चत्वारि धर्म्मार्थकाममोक्षाः पदानि यस्यास्ताम् (अष्टापदीम्) अष्टौ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राश्चत्वारो वर्णा ब्रह्मचर्य्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्चत्वार आश्रमाः पदानि प्राप्तव्यानि यस्यास्ताम् (भुवना) भवन्ति भूतानि येषु तानि गृहाणि। शेश्छन्दसि बहुलम्। (अष्टा०६.१.७०) इति लुक् (अनु) (प्रथन्ताम्) प्रख्यान्तु (स्वाहा) सत्यां सकलविद्यायुक्तां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत०४.५.२.१२-१६) व्याख्यातः ॥३०॥

पदार्थान्वयभाषाः - पुरुदस्मो विषुरूप इन्दुर्धीरो गृहस्थो धर्मेण विवाहितायाः स्त्रिया अन्तर्महिमानमानञ्ज। हे गृहस्थाः ! यूयं सृष्ट्युन्नतिं विधाय यामेकपदीं द्विपदीं त्रिपदीं चतुष्पदीमष्टापदीं स्वाहा समस्तविद्यान्वितां वाचं विदित्वा भुवनानि प्रथन्तां तया सर्वान् मनुष्याननुप्रथन्ताम् ॥३०॥
भावार्थभाषाः - दम्पतिभ्यां सर्वा गृहाश्रमविद्यामभिव्याप्य तदनुसारेण सन्तानानुत्पाद्य मनुष्यवृद्धिं विधाय ब्रह्मचर्य्येणाखिलविद्याः सर्वान् ग्राहयित्वा सुखानि प्राप्यानुमोदेताम् ॥३०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विवाहित स्त्री-पुरुषांनी गृहस्थाश्रमाचे ज्ञान प्राप्त करूनच संतती निर्माण करावी व त्यांना ब्रह्मचर्य नियमाचे पालन व अंगउपांगासह विद्या शिकवून मनुष्यमात्राची उन्नती करावी. याप्रमाणे सुख प्राप्त करून सर्वांना आनंदित करावे.