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यस्यै॑ ते य॒ज्ञियो॒ गर्भो॒ यस्यै॒ योनि॑र्हिर॒ण्ययी॑। अङ्गा॒न्यह्रु॑ता॒ यस्य॒ तं मा॒त्रा सम॑जीगम॒ꣳ स्वाहा॑ ॥२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्यै॑। ते॒। य॒ज्ञियः॑। गर्भः॑। यस्यै॑। योनिः॑। हि॑र॒ण्ययी॑। अङ्गा॑नि। अह्रु॑ता। यस्य॑। तम्। मा॒त्रा। सम्। अ॒जी॒ग॒म॒म्। स्वाहा॑ ॥२९॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहस्थ धर्म्म में गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विवाहित सौभाग्यवती स्त्री ! मैं तेरा स्वामी (यस्यै) जिस (ते) तेरा (हिरण्ययी) रोगरहित शुद्ध गर्भाशय है और (यस्यै) जिस तेरा (यज्ञियः) यज्ञ के योग्य (गर्भः) गर्भ है, (यस्य) जिस गर्भ के (अह्रुता) सुन्दर सीधे (अङ्गानि) अङ्ग हैं, (तम्) उस को (मात्रा) गर्भ की कामना करनेवाली तेरे साथ समागम करके (स्वाहा) धर्म्मयुक्त क्रिया से (सम्) (अजीगमम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ ॥२९॥
भावार्थभाषाः - पुरुष को चाहिये कि गृहाश्रम के बीच इन्द्रियों का जीतना, वीर्य्य की बढ़ती शुद्धि से उस की उन्नति करें, स्त्री भी ऐसा ही करे, और पुरुष से गर्भ को प्राप्त होके उसकी स्थिति और योनि आदि की आरोग्यता तथा रक्षा करे और जो स्त्री-पुरुष परस्पर आनन्द से सन्तान को उत्पन्न करें तो प्रशंसनीय रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और बलवाले सन्तान उत्पन्न हों, ऐसा सब लोग निश्चित जानें ॥२९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरपि गार्हस्थ्यधर्म्मे गर्भव्यवस्थामाह ॥

अन्वय:

(यस्यै) सुलक्षणायाः स्त्रियाः, षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (ते) तव (यज्ञियः) यो यज्ञमर्हति (गर्भः) (यस्यै) सुभगायाः (योनिः) जन्मस्थानम् (हिरण्ययी) रोगरहिता शुद्धा (अङ्गानि) अङ्कितानि व्यञ्जकानि वा। अङ्गेति क्षिप्रनाम, अङ्गितमेवाञ्चितं भवति। (निरु०५.१७) (अह्रुता) अकुटिलानि सरलानि शोभनानि, शेश्छन्दसि बहुलम्। (अष्टा०६.१.७०) इति लुक् (यस्य) (तम्) (मात्रा) गर्भमानकर्त्र्या त्वया सह समागम्य (सम्) (अजीगमम्) सम्यक् प्राप्नुयाम् (स्वाहा) धर्म्मयुक्त्या क्रियया। अयं मन्त्रः (शत०४.५.२.१०-११) व्याख्यातः ॥२९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विवाहिते सुभगे ! अहं पतिर्यस्यै यस्यास्ते तव हिरण्ययी योनिरस्ति, यस्यै यस्यास्तव यज्ञियो गर्भोऽस्ति, तस्यां त्वयि यस्य गर्भस्याह्रुता कुटिलान्यङ्गानि स्युस्तम्मात्रा गर्भमानकर्त्र्या त्वया सह स्वाहा समजीगमं सम्यक् प्राप्नुयाम् ॥२९॥
भावार्थभाषाः - पुरुषेण गृहाश्रमे जितेन्द्रियता वीर्य्यशुद्ध्युन्नतिब्रह्मचर्य्यता सम्पादनीया, स्त्रियाप्येवम्, अन्यच्च गर्भधारणं गर्भाशययोन्यारोग्यकरणं तद्रक्षणं च कार्य्यम्, परस्परमाह्लादेन सन्तानोत्पादने कृते प्रशस्तरूपगुणकर्मस्वभावान्यपत्यानि जायन्त इति वेद्यम् ॥२९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थाश्रमी पुरुषाने जितेन्द्रिय बनून वीर्यवृद्धी करून शुद्ध बनावे. स्त्रीनेही याप्रमाणे वागावे. गर्भ राहिल्यानंतर त्याचे रक्षण करावे. योनीची स्वच्छता व रक्षण करावे. जे पुरुष व स्त्री परस्पर आनंदाने संतती उत्पन्न करतात, त्यांची संतती रूप, गुण, कर्म स्वभावाने प्रशंसनीय व बलवान होते, हे निश्चितपणे जाणावे.