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यज्ञ॑ य॒ज्ञं ग॑च्छ य॒ज्ञप॑तिं गच्छ॒ स्वां योनिं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑। ए॒ष ते॑ य॒ज्ञो य॑ज्ञपते स॒हसू॑क्तवाकः॒ सर्व॑वीर॒स्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॑ ॥२२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यज्ञ॑। य॒ज्ञम्। ग॒च्छ॒। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ग॒च्छ॒। स्वाम्। योनि॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। ए॒षः। ते॒। य॒ज्ञः। य॒ज्ञ॒प॒त॒ इति॑ यज्ञऽपते। स॒हसू॑क्तवाक॒ इति॑ स॒हऽसू॑क्तवाकः। सर्व॑वीर॒ इति॒ सर्व॑ऽवीरः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑ ॥२२॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों के लिये विशेष उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यज्ञ) सत्कर्म्मों से सङ्गत होनेवाले गृहाश्रमी ! तू (स्वाहा) सत्य-सत्य क्रिया से (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कारपूर्वक गृहाश्रम को (गच्छ) प्राप्त हो, (यज्ञपतिम्) सङ्ग करने योग्य गृहाश्रम के पालनेवाले को (गच्छ) प्राप्त हो, (स्वाम्) अपने (योनिम्) घर और स्वभाव को (गच्छ) प्राप्त हो, (यज्ञपते) गृहाश्रम धर्म्मपालक तू (ते) तेरा जो (एषः) यह (सहसूक्तवाकः) ऋग्, यजुः, साम और अथर्ववेद के सूक्त और अनुवाकों से कथित (सर्ववीरः) जिससे आत्मा और शरीर के पूर्णबलयुक्त समस्त वीर प्राप्त होते हैं (यज्ञः) प्रशंसनीय प्रजा की रक्षा के निमित्त विद्याप्रचाररूप यज्ञ है, (तम्) उसका तू (स्वाहा) सत्यविद्या, न्याय प्रकाश करनेवाली वेदवाणी से (जुषस्व) प्रीति से सेवन कर ॥२२॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजन गृहस्थ पुरुष बड़े-बड़े यत्नों से घर के कार्यों को उत्तम रीति से करें। राजभक्ति, राजसहायता और उत्तम धर्म्म से गृहाश्रम को सब प्रकार से पालें और राजा भी श्रेष्ठ विद्या के प्रचार से सब को सन्तुष्ट करे ॥२२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गृहस्थेभ्यो विशेषोपदेशमाह ॥

अन्वय:

(यज्ञ) यो यजति सङ्गच्छते सः यज्ञो गृहस्थस्तत्सम्बुद्धौ, अत्रौणादिको नप्रत्ययः (यज्ञम्) विद्वत्सत्काराख्यं गृहाश्रमधर्म्मम् (गच्छ) प्राप्नुहि (यज्ञपतिम्) सङ्गम्यानां गृहाश्रमिणां पालकं राजानम् (गच्छ) (स्वाम्) स्वकीयाम् (योनिम्) प्रकृतिं स्वात्मस्वभावम् (गच्छ) (स्वाहा) सत्यया क्रियया (एषः) विद्यमानः (ते) तव (यज्ञः) सम्पूजनीयः प्रजारक्षणनिमित्तो विद्याप्रचारार्थो गृहाश्रमः (यज्ञपते) राजधर्म्माग्निहोत्रादिपालक (सहसूक्तवाकः) ऋग्यजुरादिलक्षणैः सूक्तैर्वाकैः सह वर्त्तमानः (सर्ववीरः) शरीरात्मबलसुभूषिताः सर्वे वीरा यस्मात् (तम्) (जुषस्व) सेवस्व (स्वाहा) सत्यन्यायप्रकाशिकया वाचा। अयं मन्त्रः (शत०४.४.४.१४) व्याख्यातः ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे यज्ञ ! त्वं स्वाहा, यज्ञं गच्छ, यज्ञपतिं गच्छ, स्वां योनिं गच्छ, यज्ञपते ते य एष सहसूक्तवाकः सर्ववीरो यज्ञोऽस्ति, तं त्वं स्वाहा जुषस्व ॥२२॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनो गृहस्थः पुरुषः प्रयत्नेन गृहकर्म्माणि यथावत् कुर्य्यात्, राजभक्त्या राजाश्रयेण सद्धर्म्मव्यवहारेण च गृहाश्रमं परिपालयेत्, राजा च सद्विद्या प्रचारेण सर्वान् पोषयेत् ॥२२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थाश्रमी लोकांनी गृहकृत्ये उत्तमरीत्या पार पाडावीत. राज्याची भक्ती व राज्याची सहायता करावी आणि गृहस्थाश्रमाचे पालन उत्तमरीत्या करावे, तसेच राजानेही श्रेष्ठ विद्येचा प्रचार करून सर्वांना संतुष्ट करावे.