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आ वा॑यो भूष शुचिपा॒ऽउप॑ नः स॒हस्रं॑ ते नि॒युतो॑ विश्ववार। उपो॑ ते॒ऽअन्धो॒ मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेयं॑ वा॒यवे॑ त्वा ॥७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वा॒यो॒ऽइति॑ वायो। भू॒ष॒। शुचि॒पा॒ इति॑ शुचिऽपाः। उप॑ नः॒। स॒हस्र॑म्। ते॒। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। वि॒श्व॒वा॒रेति॑ विश्वऽवार। उपो॒ऽइत्यु॑पो॑। ते॒। अन्धः॑। मद्य॑म्। अ॒या॒मि॒। यस्य॑। दे॒व॒। द॒धि॒षे। पू॒र्वपेय॒मिति॑ पूर्वऽपेय॑म्। वा॒यवे॑। त्वा॒ ॥७॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर योगी का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शुचिपाः) अत्यन्त शुद्धता को पालने और (वायो) पवन के तुल्य योगक्रियाओं में प्रवृत्त होनेवाले योगी ! तू (सहस्रम्) हजारों (नियुतः) निश्चित शमादिक गुणों को (आभूष) सब प्रकार सुभूषित कर। हे (विश्ववार) समस्त गुणों के स्वीकार करनेवाले ! जो (ते) तेरा (मद्यम्) अच्छी तृप्ति देनेवाला (अन्धः) अन्न है, उसको (उपो) तेरे समीप (अयामि) पहुँचाता हूँ। हे (देव) योगबल से आत्मा को प्रकाश करनेवाले ! (यस्य) जिस तेरा (पूर्वपेयम्) श्रेष्ठ योगियों की रक्षा करने के योग्य योगबल है, जिसको तू (दधिषे) धारण कर रहा है, (वायवे) उस योग के जानने के लिये (त्वा) तुझे स्वीकार करता हूँ ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो योगी प्राण के तुल्य सब को भूषित करता, ईश्वर के तुल्य अच्छे-अच्छे गुणों में व्याप्त होता है और अन्न वा जल के सदृश सुख देता है, वही योग में समर्थ होता है ॥७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्योगिकृत्यमाह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (वायो) वायुरिव वर्त्तमान (भूष) अलंकुरु (शुचिपाः) शुचि पवित्रतां पालयतीति शुचिपाः पवित्रपालक (उप) (नः) अस्मान् (सहस्रम्) (ते) तव (नियुतः) नियुज्यन्ते ये तान् निश्चितान् शमादिगुणान्, अत्र कर्म्मणि क्विप्। (विश्ववार) विश्वान् सर्वानानन्दान् वृणोति तत्सम्बुद्धौ (उपो) समीपम् (ते) (अन्धः) अन्नम् (मद्यम्) तृप्तिप्रदम् (अयामि) प्राप्नोमि (यस्य) (देव) योगेनात्मप्रकाशित (दधिषे) धरसि (पूर्वपेयम्) पूर्वैः पातुं योग्यमिव (वायवे) (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.१.३.१८) व्याख्यातः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शुचिपा वायो त्वं सहस्रं नियुत आभूष, हे विश्ववार ! ते तव सकाशान्मद्यमन्ध उपो अयामि। हे देव ! यस्य ते तव पूर्वपेयमस्ति, यच्च त्वं दधिषे, तद्वायवे त्वा त्वामहं स्वीकरोमि ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो योगी प्राण इव सर्वानलङ्करोति, ईश्वर इव सद्गुणेषु व्याप्नोत्यन्नजले इव सर्वान् सुखयति, स एव योगे प्रभवति ॥७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो योगी प्राणाप्रमाणे सर्वांना प्रिय व भूषणावह आहे, ईश्वराप्रमाणे अनेक चांगल्या गुणांनी युक्त आहे, अन्न व जलाप्रमाणे सुखदायक आहे तोच खरा योगी होय.