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स्वाङ्कृ॑तोऽसि॒ विश्वे॑भ्यऽइन्द्रि॒येभ्यो॑ दि॒व्येभ्यः॒ पार्थि॑वेभ्यो॒ मन॑स्त्वाष्टु॒ स्वाहा॑ त्वा सुभव॒ सूर्या॑य दे॒वेभ्य॑स्त्वा मरीचि॒पेभ्य॑ऽउदा॒नाय॑ त्वा ॥६॥

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पद पाठ

स्वाङ्कृ॑त॒ इति॒ स्वाम्ऽकृ॑तः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। इ॒न्द्रि॒येभ्यः। दि॒व्येभ्यः॑। पार्थि॑वेभ्यः। मनः॑। त्वा॒। अ॒ष्टु॒। स्वाहा॑। त्वा॒। सु॒भ॒वेति॑ सुऽभव। सूर्य्या॑य। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। म॒री॒चि॒पेभ्य॒ इति॑ मरीचि॒पेभ्यः॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। त्वा॒ ॥६॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर योगविद्या चाहनेवाले के प्रति उपदेश करता है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुभव) शोभन ऐश्वर्य्य युक्त योगी ! तू (स्वाङ्कृतः) अनादि काल से स्वयंसिद्ध (असि) है मैं (दिव्येभ्यः) शुद्ध (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) प्रशस्त गुण और प्रशंसनीय पदार्थों से युक्त विद्वानों और (मरीचिपेभ्यः) योग के प्रकाश से युक्त व्यवहारों से (त्वा) तुझको स्वीकार करता हूँ, (पार्थिवेभ्यः) पृथिवी पर प्रसिद्ध पदार्थों के लिये भी (त्वा) तुझ को स्वीकार करता हूँ, (सूर्य्याय) सूर्य्य के समान योग प्रकाश करने के लिये वा (उदानाय) उत्कृष्ट जीवन और बल के अर्थ (त्वा) तुझे ग्रहण करता हूँ, जिससे (त्वा) तुझ योग चाहनेवाले को (मनः) योग समाधियुक्त मन और (स्वाहा) सत्यानुष्ठान करने की क्रिया (अष्टु) प्राप्त हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जब तक श्रेष्ठाचार करनेवाला नहीं होता, तब तक ईश्वर भी उसको स्वीकार नहीं करता, जब तक उसको ईश्वर स्वीकार नहीं करता है, तब तक उसका पूरा-पूरा आत्मबल नहीं हो सकता और जब तक आत्मबल नहीं बढ़ता, तब तक उसको अत्यन्त सुख भी नहीं होता ॥६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरो योगजिज्ञासुं प्रत्याह ॥

अन्वय:

(स्वाङ्कृतः) स्वयंसिद्धोऽनादिस्वरूपः (असि) (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (इन्द्रियेभ्यः) कार्य्यसाधकतमेभ्यः (दिव्येभ्यः) निर्मलेभ्यः (पार्थिवेभ्यः) पृथिव्यां विदितेभ्यः (मनः) योगमननम् (त्वा) त्वां योगमभीप्सुम् (अष्टु) प्राप्नोतु (स्वाहा) सत्यवचनरूपा क्रिया (त्वा) त्वाम् (सुभव) सुष्ठ्वैश्वर्य्य (सूर्य्याय) सूर्य्यस्येव योगप्रकाशाय (देवेभ्यः) प्रशस्तगुणपदार्थेभ्यः (त्वा) त्वाम् (मरीचिपेभ्यः) रश्मिभ्यः। मरीचिपा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.४) (उदानाय) उत्कृष्टाय जीवनबलसाधनायैव (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.१.२.२१-२४) व्याख्यातः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सुभव योगिंस्त्वं स्वाङ्कृतोस्यहं दिव्येभ्यो विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरीचिपेभ्यश्च त्वा त्वां स्वीकरोमि, पार्थिवेभ्यस्त्वा त्वां स्वीकरोमि, यतस्त्वा त्वां मनः स्वाहा सत्यारूढा क्रिया चाष्टु ॥६॥
भावार्थभाषाः - यावन्मनुष्यः श्रेष्ठाचारी न भवति तावदीश्वरोऽपि तं न स्वीकरोति, यावदयं न स्वीकरोति तावत् तस्यात्मबलं पूर्णं न भवति, यावदिदं न जायते तावन्नात्यन्तं सुखं भवतीति ॥६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणूस जोपर्यंत श्रेष्ठ आचरण करत नाही तोपर्यंत ईश्वरही त्याचा स्वीकार करत नाही व तोपर्यंत त्याचे आत्मबलही पूर्णपणे वाढत नाही आणि जोपर्यंत आत्मबल वाढत नाही तोपर्यंत त्याला संपूर्ण सुख मिळू शकत नाही.