अब अगले मन्त्र में ईश्वर जीवों को उपदेश करता है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन कर्म्म-फल को (अदात्) देता और (कस्मै) किसके लिये (अदात्) देता है। इन दो प्रश्नों के उत्तर (कामः) जिसकी कामना सब करते हैं, वह परमेश्वर (अदात्) देता और (कामाय) कामना करनेवाले जीव को (अदात्) देता है। अब विवेक करते हैं कि (कामः) जिसकी योगीजन कामना करते हैं, वह परमेश्वर (दाता) देनेवाला है, (कामः) कामना करनेवाला जीव (प्रतिग्रहीता) लेनेवाला है। हे (काम) कामना करनेवाले जीव ! (ते) तेरे लिये मैंने वेदों के द्वारा (एतत्) यह समस्त आज्ञा की है, ऐसा तू निश्चय करके जान ॥४८॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में कर्म्म करनेवाले जीव और फल देनेवाला ईश्वर है। यहाँ यह जानना चाहिये कि कामना के विना कोई आँख का पलक भी नहीं हिला सकता। इस कारण जीव कामना करे, परन्तु धर्म्म सम्बन्धी कामना करे, अधर्म्म की नहीं। यह निश्चय कर जानना चाहिये कि जो इस विषय में मनुजी ने कहा है, वह वेदानुकूल है, जैसे−‘इस संसार में अति कामना प्रशंसनीय नहीं और कामना के विना कोई कार्य्य सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिये धर्म्म की कामना करनी और अधर्म्म की नहीं, क्योंकि वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और वेदोक्त धर्म का आचरण करना आदि कामना इच्छा के विना कभी सिद्ध नहीं हो सकती ॥१॥ इस संसार में तीनों काल में इच्छा के विना कोई क्रिया नहीं देख पड़ती जो-जो कुछ किया जाता है, सो-सो सब इच्छा ही का व्यापार है, इसलिये श्रेष्ठ वेदोक्त कामों की इच्छी करनी, इतर दुष्ट कामों की नहीं ॥४८॥ इस अध्याय में बाहर भीतर का व्यवहार, मनुष्यों का परस्पर वर्ताव, आत्मा का कर्म, आत्मा में मन की प्रवृत्ति, प्रथम सिद्ध योगी के लिये ईश्वर का उपदेश, ज्ञान चाहनेवाले को योगाभ्यास करना, योग का लक्षण, पढ़ने-पढ़ानेवालों की रीति, योगविद्या के अभ्यास करनेवालों का वर्त्ताव, योगविद्या से अन्तःकरण की शुद्धि, योगाभ्यासी का लक्षण, गुरु शिष्य का परस्पर व्यवहार, स्वामि सेवक का वर्ताव, न्यायाधीश को प्रजा के रक्षण करने की रीति, राजपुरुष और सभासदों का कर्म्म, राजा का उपदेश, राजाओं का कर्त्तव्य, परीक्षा करके सेनापति का करना, पूर्ण विद्वान् को सभापति का अधिकार देना, विद्वानों का कर्त्तव्य कर्म्म, ईश्वर के उपासक को उपदेश, यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले का विषय, प्रजाजन आदि के साथ सभापति का वर्त्ताव, राजा और प्रजा के जनों का सत्कार, गुरु शिष्य की परस्पर प्रवृत्ति, नित्य पढ़ने का विषय, विद्या की वृद्धि करना, राजा का कर्त्तव्य, सेनापति का कर्म्म, सभाध्यक्ष की क्रिया, ईश्वर के गुणों का वर्णन, उसकी प्रार्थना, शूरवीरों को युद्ध का अनुष्ठान, सेना में रहनेवाले पुरुषों का कर्त्तव्य, ब्रह्मचर्य्य सेवन की रीति और ईश्वर का जीवों के प्रति उपदेश, इस वर्णन के होने से सप्तम अध्याय के अर्थ की षष्ठाध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥