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रू॒पेण॑ वो रू॒पम॒भ्यागां॑ तु॒थो वो वि॒श्ववे॑दा॒ विभ॑जतु। ऋ॒तस्य॑ प॒था प्रेत॑ च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ वि स्वः॒ पश्य॒ व्य᳕न्तरि॑क्षं॒ यत॑स्व सद॒स्यैः᳖ ॥४५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रूपेण॑। वः॒। रू॒पम्। अ॒भि। आ। अ॒गा॒म्। तु॒थः। वः॒। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवेदाः। वि। भ॒ज॒तु॒। ऋ॒तस्य॑। प॒था। प्र। इ॒त॒। च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ इति॑ च॒न्द्रऽद॑क्षिणाः। वि। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। पश्य॑। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। यत॑स्व। स॒द॒स्यैः᳖ ॥४५॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन सभाओं से राज्य की शिक्षा करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेना और प्रजाजनो ! जैसे मैं (रूपेण) अपने दृष्टिगोचर आकार से (वः) तुम्हारे (रूपम्) स्वरूप को (अभि) (आ) (अगाम्) प्राप्त होता हूँ, वैसे (विश्ववेदाः) सब को जाननेवाले परमात्मा के समान सभापति (वः) तुम लोगों को (वि) (भजतु) पृथक्-पृथक् अपने-अपने अधिकार में नियत करे। हे सभापते ! (तुथः) सब से अधिक ज्ञानवाले प्रतिष्ठित आप (स्वः) प्रताप को प्राप्त हुए सूर्य्य के समान (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से (अन्तरिक्षम्) अविनाशी राजनीति वा ब्रह्मविज्ञान को (वि) अनेक प्रकार से (पश्य) देखो और सभा के बीच में (सदस्यैः) सभासदों के साथ सत्य मार्ग से (प्र) (यतस्व) विशेष-विशेष यत्न करो तथा हे (चन्द्रदक्षिणाः) सुवर्ण के दान करनेवाले राजपुरुषो ! तुम लोग धर्म्म को (वीत) विशेषता से प्राप्त होओ ॥४५॥
भावार्थभाषाः - सभापति राजा को चाहिये कि प्रजा, सेना के पुरुषों को अपने पुत्रों के तुल्य प्रसन्न रक्खे और परमेश्वर के तुल्य पक्षपात छोड़ कर न्याय करे। धार्म्मिक सभ्यजनों की तीन सभा होनी चाहियें उनमें से एक राजसभा जिस के आधीन राज्य के सब कार्य्य चलें और सब उपद्रव निवृत्त रहें। दूसरी विद्यासभा जिससे विद्या का प्रचार अनेकविधि किया जावे और अविद्या का नाश होता रहे और तीसरी धर्म्मसभा जिससे धर्म्म की उन्नति और अधर्म्म की हानि निरन्तर की जाय। सब लोगों को उचित है कि अपने आत्मा और परमात्मा को देखकर अन्याय मार्ग से अलग हों, धर्म्म का सेवन और सभासदों के साथ समयानुकूल अनेक प्रकार से विचार करके सत्य और असत्य के निर्णय करने में प्रयत्न किया करें ॥४५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सभात्रयेण राज्यं शासनीयमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(रूपेण) चक्षुग्राह्येण प्रियेण (वः) युष्माकम् (रूपम्) स्वरूपम् (अभि) सम्मुखे (आ) समन्तात् (अगाम्) (तुथः) ज्ञानवृद्धः, अत्र तु गतिवृद्धिहिंसास्वित्यस्मादौणादिकस्थक् प्रत्ययः। (वः) युष्मान् (विश्ववेदाः) यः परत्मात्मा विश्वं सर्वं वेत्ति तद्वद्वर्त्तमानः (वि) (भजतु) विभागं करोतु (ऋतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (प्र) (इत) प्राप्नुत (चन्द्रदक्षिणाः) चन्द्रं सुवर्णं दक्षिणा दानं येषां ते। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (वि) (स्वः) उपतपन्नादित्य इव। स्वरादित्यो भवति। (निरु०२.१४) (पश्य) प्रचक्ष्व (वि) विविधार्थे (अन्तरिक्षम्) क्षयरहितमन्तर्य्यामिस्वाभाविकं ब्रह्मविज्ञानं वा। अन्तरिक्षम् कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा। (निरु०२.१०) (यतस्व) प्रयत्नं कुरु (सदस्यैः) सदसि भवैः सभ्यैर्जनैः सह ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.४.१४-१८) व्याख्यातः ॥४५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेना प्रजाजना ! यथाहं रूपेण वो युष्माकं रूपमभ्यागाम्, तथा विश्ववेदा वो युष्मान् विभजतु। तुथस्त्वं स्वरिवर्त्तस्य पथान्तरिक्षं विपश्य, सभायां सदस्यैः सहर्त्तस्य पथा प्रयतस्व। चन्द्रदक्षिणा यूयमृतस्य धर्म्यं मार्गं वीत ॥४५॥
भावार्थभाषाः - सभापती राजा स्वात्मजानिव प्रजासेनासभ्यपुरुषान् प्रीणयेत्, तथा पक्षपातरहितः परमेश्वर इव सततं न्यायं कुर्यात्। धार्मिकाणां सभ्यानां जनानां तिस्रः सभा भवेयुः। तास्वेका राजसभा−यया राजकार्याणि निष्पद्येरन्, सर्वे विघ्ना निवर्तेरंश्च। द्वितीया विद्यासभा−यया विद्याप्रचारः स्यादविद्या नश्येत्। तृतीया धर्मसभा−यया धर्मोन्नतिरधर्महानिश्च सततं भवेत्, सर्वे स्वात्मानं परमात्मानं समीक्ष्यान्यायमार्गात् पृथग्भूत्वा धर्मं सेवित्वा समयं पर्य्यालोच्य सत्यासत्यनिर्णये प्रयतेरन् ॥४५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने आपल्या पुत्रांप्रमाणे सैन्यातील लोकांना प्रसन्न ठेवावे व परमेश्वराप्रमाणे पक्षपातरहित न्याय द्यावा. धार्मिक सभ्य पुरुषांच्या तीन प्रकारच्या सभा असाव्यात. त्यापैकी एक राज्यसभा, जिच्याद्वारे राज्याची सर्व कामे निर्वेधपणे चालावी व दुसरी विद्यासभा, ज्या सभेद्वारे अनेक प्रकारे विद्येचा प्रचार केला जावा व अविद्येचा नाश व्हावा. तिसरी धर्मसभा जिच्यामुळे सतत धर्माची उन्नती व अधर्माचा नाश व्हावा. सर्व लोकांनी आपला आत्मा व परमात्मा यांना जाणून अन्यायाच्या मार्गाचा त्याग करावा. सर्व सभासदाबरोबर धर्माचरण करून काळानुसार विचार विनियम करून सत्यासत्याचा निर्णय करण्याचा प्रयत्न करावा.