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इन्द्र॑ मरुत्वऽइ॒ह पा॑हि॒ सोमं॒ यथा॑ शार्या॒तेऽअपि॑बः सु॒तस्य॑। तव॒ प्रणी॑ती॒ तव॑ शूर॒ शर्म॒न्नावि॑वासन्ति क॒वयः॑ सुय॒ज्ञाः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते ॥३५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। म॒रु॒त्वः॒। इ॒ह। पा॒हि॒। सोम॑म्। यथा॑। शा॒र्य्या॒ते। अपि॑बः। सु॒तस्य॑। तव॑। प्रणी॑ती। प्रनी॑तीति॒ प्रऽनी॑ती। तव॑। शू॒र॒। शर्म्म॑न्। आ। वि॒वा॒स॒न्ति॒। क॒वयः॑। सु॒य॒ज्ञा इति॑ सुऽय॒ज्ञाः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३५॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:35


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा पढ़ने आदि व्यवहार की रक्षा को किस प्रकार से करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सब विघ्नों के दूर करनेवाले सब सम्पत्ति से युक्त तेजस्वी (मरुत्वः) प्रशंसनीय धर्म्मयुक्त प्रजा पालनेहारे सभापति राजन् ! आप (इह) इस संसार में (यथा) जैसे (शार्य्याते) अपने हाथ पैरों के परिश्रम से निष्पन्न किये हुए व्यवहार में (सुतस्य) अभ्यास किये हुए विद्या रस को (अपिबः) पी चुके हो, वैसे (सोमम्) समस्त अच्छे गुण, ऐश्वर्य और सुख करनेवाले पठनपाठन-रूपी यज्ञ को (पाहि) पालो। हे (शूर) धर्म्मविरोधियों को दण्ड देनेवाले ! (तव) तुम्हारे) (शर्म्मन्) राज्य घर में (सुयज्ञाः) अच्छे पढ़ने-पढ़ानेवाले विद्वानों के समान (कवयः) बुद्धिमान् लोग (तव) तुम्हारी (प्रणीती) उत्तम नीति का (आविवासन्ति) सेवन करते हैं। हे शूर ! जिस कारण तुम (उपयामगृहीतः) प्रजापालनादि नियमों से स्वीकार किये हुए (असि) हो, इससे (त्वा) (इन्द्राय) परमैश्वर्य और (मरुत्वते) प्रजा-सम्बन्ध के लिये हम लोग चाहते हैं कि जो (ते) (एषः) यह विद्या का प्रचार (योनिः) घर के समान है। इससे (त्वा) तुम को (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य और (मरुत्वते) प्रजापालन सम्बन्ध के लिये मानते हैं ॥३५॥
भावार्थभाषाः - सब विद्वानों को उचित है कि जैसे न्यायाधीशों की न्याययुक्त सभा से जो आज्ञा हो, उस को कभी उल्लङ्घन न करें, वैसे वे राजसभा के सभासद् भी वेदज्ञ विद्वानों की आज्ञा का उल्लङ्घन न करें, जो सब गुणों से उत्तम हो, उसी को सभापति करें और वह सभापति भी उत्तम नीति से समस्त राज्य के प्रबन्धों को चलावे ॥३५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजाऽध्यापनादिव्यवहाररक्षणं कथं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(इन्द्र) सर्वविघ्नविदारक सकलैश्वर्य्ययुक्त सम्राट् ! (मरुत्वः) मरुतः प्रशस्ता धर्म्मसम्बद्धाः प्रजा यस्य तत्सम्बुद्धौ (इह) अस्मिन् संसारे (पाहि) रक्ष (सोमम्) सकलगुणैश्वर्य्यकल्याणकर्माध्ययनाध्यापनाख्यं यज्ञम् (यथा) (शार्य्याते) शर्य्याभिरङ्गुलिभिनिर्वृत्तानि कर्म्माणि शर्य्याणि तान्यतति व्याप्नोति स शार्य्यातस्तस्मिन्। शर्य्या इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं०२.५) (अपिबः) (सुतस्य) (तव) (प्रणीती) प्रकृष्टां नीतिम्। अत्र सुपां सुलुक्। (अष्टा०७.१.३९) इति पूर्वसवर्णादेशः। (तव) (शूर) धर्म्मविरोधिहिंसक (शर्म्मन्) न्यायगृहे। अत्र सुपां सुलुग्० [अष्टा०७.१.३९] इति ङेर्लुक्। न ङिसम्बुद्ध्योः। (अष्टा०८.२.८) इति नलोपाभावः। (आ) (विवासन्ति) परिचरन्ति। विवासतीति परिचरणकर्म्मसु पठितम्। (निघं०३.५) (कवयः) मेधाविनः। कविरिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (सुयज्ञाः) शोभनोऽध्ययनाध्यापनाख्यो यज्ञो येषां त इव (उपायमगृहीतः) (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (मरुत्वते) प्रजासम्बन्धाय, अत्र सम्बन्धे मतुप् झयः [अष्टा०८.२.१०] इति मस्य वत्वम्। (एषः) (ते) (योनिः) (त्वा) (मरुत्वते) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.३.१३) व्याख्यातः ॥३५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुत्व इन्द्र ! त्वमिह यथा शार्य्याते सुतस्यापिबस्तथा सोमं पाहि। हे शूर ! तव शर्म्मन् न्यायगृहे सुयज्ञा इव कवयस्तव प्रणीतिमाविवासन्ति, यस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्मात् त्वामिन्द्राय मरुत्वते वयं सेवेमहि, ते तवैष विद्याप्रचारो योनिरस्त्यतस्त्वामिन्द्राय मरुत्वते मन्यामहे ॥३५॥
भावार्थभाषाः - सर्वेषां विदुषामुचितमस्ति न्यायराजसभाज्ञां नोल्लङ्घेरन्, तथैते राजसभासभ्यजना अपि विद्वदाज्ञां नोल्लङ्घेरन्। यः सर्वोत्कृष्टस्तं सभापतिं कुर्य्युः, स सभापतिरुत्तमनीत्या सर्वराज्यप्रबन्धं कुर्य्यात् ॥३५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व विद्वानांनी न्यायसभेच्या न्यायाधीशाच्या आज्ञेचे उल्लंघन करू नये राज्यसभेच्या सभासदांनीही वेदज्ञ विद्वानांच्या आज्ञेचे उल्लंघन करू नये. जो सर्व गुणांनी युक्त असेल त्यालाच राजा करावे व त्या राजाने उत्तम नीतीचा अंगीकार करून सर्व राज्याची व्यवस्था पाहावी.