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आ॒त्मने॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पव॒स्वौज॑से मे वर्चो॒दा वर्च॑से पव॒स्वायु॑षे मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ विश्वा॑भ्यो मे प्र॒जाभ्यो॑ वर्चो॒दसौ॒ वर्च॑से पवेथाम् ॥२८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒त्मने॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। ओज॑से। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। आयु॑षे। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। विश्वा॑भ्यः। मे॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। व॒र्चो॒दसा॒विति॑ वर्चः॒ऽदसौ॑। वर्च॑से। प॒वे॒था॒म् ॥२८॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:28


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वर्चोदाः) योग और ब्रह्मविद्या देनेवाले विद्वन् ! आप (मे) मेरे (आत्मने) इच्छादि गुणयुक्त चेतन के लिये (वर्चसे) अपने आत्मा के प्रकाश को (पवस्व) प्राप्त कीजिये। हे (वर्चोदाः) उक्त विद्या देनेवाले विद्वन् ! आप (मे) मेरे (ओजसे) आत्मबल होने के लिये (वर्चसे) योगबल को (पवस्व) जनाइये। हे (वर्चोदाः) बल देनेवाले ! (मे) मेरे (आयुषे) जीवन के लिये (वर्चसे) रोग छुड़ानेवाले औषध को (पवस्व) प्राप्त कीजिये। हे (वर्चोदसौ) योगविद्या के पढ़ने-पढ़ानेवालो ! तुम दोनों (मे) मेरी (विश्वाभ्यः) समस्त (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (वर्चसे) सद्गुण प्रकाश करने को (पवेथाम्) प्राप्त कराया करो ॥२८॥
भावार्थभाषाः - योगविद्या के विना कोई भी मनुष्य पूर्ण विद्यावान् नहीं हो सकता और न पूर्णविद्या के विना अपने स्वरूप और परमात्मा का ज्ञान कभी होता है और न इसके विना कोई न्यायाधीश सत्पुरुषों के समान प्रजा की रक्षा कर सकता है, इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि इस योगविद्या का सेवन निरन्तर किया करें ॥२८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ॥

अन्वय:

(आत्मने) इच्छादिगुणसमवेताय स्वस्वरूपाय (मे) मम (वर्चोदाः) योगब्रह्मविद्याप्रद ! (वर्चसे) निजात्मप्रकाशाय (पवस्व) प्रापय (ओजसे) आत्मबलाय। ओज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (मे) मम (वर्चोदाः) विद्याप्रद ! (वर्चसे) योगबलप्रकाशाय (पवस्व) विज्ञापय (आयुषे) जीवनाय (मे) (वर्चोदाः) वर्चो बलं ददाति तत्सम्बुद्धौ (वर्चसे) रोगापहारकायौषधाय (पवस्व) गमय (विश्वाभ्यः) समस्ताभ्यः (मे) मम (प्रजाभ्यः) पालनीयाभ्यः (वर्चोदसौ) न्यायप्रकाशकौ सर्वाधिष्ठातारौ सभापतिन्यायाधीशाविव योगारूढयोगजिज्ञासू (वर्चसे) सद्गुणप्रकाशाय (पवेथाम्) प्रापयेथाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.५.६.३) व्याख्यातः ॥२८॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वर्चोदा विद्वंस्त्वं मे ममात्मने वर्चसे पवस्व। हे वर्चोदा ! म ओजसे वर्चसे पवस्व। हे वर्चोदा ! मे ममायुषे वर्चसे पवस्व। हे वर्चोदसौ युवां मे मम विश्वाभ्यः प्रजाभ्यो वर्चसे पवेथाम् ॥२८॥
भावार्थभाषाः - नैव योगेन विना कश्चिदपि पूर्णविद्यो भवति, न च पूर्णया विद्वत्तया विना स्वात्मपरमात्मनोर्बोधः कथंचिज्जायते, नापि तेन विना सत्पुरुषवत् प्रजाः पालयितुं कश्चिदपि शक्नोति, तस्माद् योगविधिरयं सर्वजनैः संसेव्यः ॥२८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - योगविद्येशिवाय कोणीही माणूस पूर्ण विद्वान बनू शकत नाही व पूर्ण विद्येशिवाय आत्मस्वरूपाचे व परमेश्वराचे ज्ञान कधीही होऊ शकत नाही आणि कोणी न्यायाधीश सत्पुरुषांप्रमाणे प्रजेचे रक्षण करू शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी नेहमी योगविद्येचे अनुसरण केले पाहिजे.