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प्रा॒णाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व व्या॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्वोदा॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व वा॒चे मे॑ वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ क्रतू॒दक्षा॑भ्यां मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ श्रोत्रा॑य मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ चक्षु॑र्भ्यां मे वर्चो॒दसौ॒ वर्च॑से पवेथाम् ॥२७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒णाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्च॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। वा॒चे। मे॒। व॒र्चो॒दा इति वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। क्रतू॒दक्षा॑भ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। श्रोत्रा॑य। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। चक्षु॑र्भ्या॒मिति॒ चक्षुः॑ऽभ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दसा॒विति॑ वर्चः॒ऽदसौ॑। वर्च॑से। प॒वे॒था॒म् ॥२७॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पठन-पाठन यज्ञ के करनेवाले का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वर्चोदाः) यथायोग्य विद्या पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञकर्म करनेवाले ! आप (मे) मेरे (प्राणाय) हृदयस्थ जीवन के हेतु प्राणवायु और (वर्चसे) वेदविद्या के प्रकाश के लिये (पवस्व) पवित्रता से वर्तें। हे (वर्चोदाः) ज्ञानदीप्ति के देनेवाले जाठराग्नि के समान आप (मे) मेरे (व्यानाय) सब शरीर में रहनेवाले पवन और (वर्चसे) अन्न आदि पदार्थों के लिये (पवस्व) पवित्रता से प्राप्त होवें। हे (वर्चोदाः) विद्याबल देनेवाले ! आप (मे) (उदानाय) श्वास से ऊपर को आनेवाले उदान-संज्ञक पवन और (वर्चसे) पराक्रम के लिये (पवस्व) ज्ञान दीजिये। हे (वर्चोदाः) सत्य बोलने का उपदेश करनेवाले आप (मे) मेरी (वाचे) वाणी और (वर्चसे) प्रगल्भता के लिये (पवस्व) प्रवृत्त हूजिये। (वर्चोदाः) विज्ञान देनेवाले आप (मे) मेरे (क्रतूदक्षाभ्याम्) बुद्धि और आत्मबल की उन्नति और (वर्चसे) अच्छे बोध के लिये (पवस्व) शिक्षा कीजिये। हे (वर्चोदाः) शब्दज्ञान के देनेवाले यज्ञपति ! आप (मे) मेरे (श्रोत्राय) शब्द ग्रहण करनेवाले कर्णेन्द्रिय के लिये (वर्चसे) शब्दों के अर्थ और सम्बन्ध का (पवस्व) उपदेश करें। हे (वर्चोदसौ) सूर्य्य और चन्द्रमा के समान अतिथि और पढ़ानेवाले आप दोनों (मे) मेरे (चक्षुर्भ्याम्) नेत्रों के लिये (वर्चसे) शुद्ध सिद्वान्त के प्रकाश को (पवेथाम्) प्राप्त हूजिये ॥२७॥
भावार्थभाषाः - जो विद्या की वृद्धि के लिये पठन-पाठन रूप यज्ञकर्म्म करनेवाला मनुष्य है, वह अपने यज्ञ के अनुष्ठान से सब की पुष्टि तथा सन्तोष करनेवाला होता है, इससे ऐसा प्रयत्न सब मनुष्यों को करना उचित है ॥२७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरध्ययनाध्यापनाख्ययज्ञकर्त्तुर्विषयान्तरमाह ॥

अन्वय:

(प्राणाय) प्राणति जीवयतीति प्राणो हृदयस्थो वायुस्तस्मै (मे) मम (वर्चोदाः) यथायोग्यं ददाति, तत्संबुद्धौ (वर्चसे) विद्याप्रकाशाय (पवस्व) पवित्रतया प्राप्नुहि (व्यानाय) सर्वशरीरगतवायवे (मे) मम (वर्चोदाः) दीप्तिप्रदो जाठराग्निरिव (वर्चसे) अन्नाय। वर्च इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (पवस्व) (उदानाय) (मे) मम (वर्चोदाः) वर्चो विद्याबलं ददातीति (वर्चसे) पराक्रमाय (पवस्व) (वाचे) वाण्यै (मे) मम (वर्चोदाः) सत्यवक्तृत्वप्रदः (वर्चसे) प्रागल्भ्याय (पवस्व) प्रवर्त्तस्व (क्रतूदक्षाभ्याम्) प्रज्ञाबलाभ्याम् (मे) मम (वर्चोदाः) विज्ञानप्रदः (वर्चेसे) शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानाय (पवस्व) उपदिश (श्रोत्राय) शब्दज्ञानाय (मे) मम (वर्चोदाः) तज्ज्ञानदः (वर्चसे) अध्ययनदीप्त्यै (पवस्व) प्रापको भव (चक्षुर्भ्याम्) (मे) मम (वर्चोदसौ) सूर्य्याचन्द्रमसाविवातिथ्यध्यापकौ (वर्चसे) शुद्धसिद्धान्तप्रकाशाय (पवेथाम्) प्राप्नुतम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.५.६.२) व्याख्यातः ॥२७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वर्चोदा अध्येतरध्यापक ! त्वं मम प्राणाय वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदा ! मम व्यानाय वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदा ! मे ममोदनाय वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदा मे मम वाचे वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदसौ युवां मे मम चक्षुर्भ्यां वर्चसे पवेथाम् ॥२७॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्यो विद्यावृद्धये पठनपाठनरूपं यज्ञं कर्म करोति, स सर्वपुष्टिसन्तुष्टिकरो भवत्यत एवं सर्वैरनुष्ठातव्यम् ॥२७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्या वाढवण्यासाठी पठणपाठणरूपी यज्ञकर्म करणारा माणूस आपल्या यज्ञाच्या अनुष्ठानाने सर्वांची पुष्टी व संतुष्टी करणारा असतो. त्यासाठी सर्व माणसांनी तशा प्रकारचा प्रयत्न केला पाहिजे.