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यस्ते॑ द्र॒प्स स्कन्द॑ति॒ यस्ते॑ऽअ॒ꣳशुर्ग्राव॑च्युतो धि॒षण॑योरु॒पस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ परि॑ वा॒ यः प॒वित्रा॒त्तं ते॑ जुहोमि॒ मन॑सा॒ वष॑ट्कृत॒ꣳ स्वाहा॑ दे॒वाना॑मुत्क्रम॑णमसि ॥२६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। ते॒। द्र॒प्सः। स्कन्द॑ति। यः। ते॒। अ॒ꣳशुः। ग्राव॑च्युत॒ इति॒ ग्राव॑ऽच्युतः। धि॒षण॑योः। उ॒पस्था॒दित्यु॒पऽस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्य्योः। वा॒। परि॑। वा॒। यः। प॒वित्रा॑त्। तम्। ते॒। जु॒हो॒मि॒। मन॑सा। वष॑ट्कृत॒मिति॒ वष॑ट्ऽकृतम्। स्वाहा॑। दे॒वाना॑म्। उ॒त्क्रम॑ण᳖मित्यु॒त्ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒ ॥२६॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले को उपदेश करता है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे यज्ञपते ! (यः) जो (ते) तेरा (द्रप्सः) यज्ञ के पदार्थों का समूह (स्कन्दति) पवन के साथ सब जगह में प्राप्त होता है और (यः) जो (ते) तेरे यज्ञ से युक्त (ग्रावच्युतः) मेघमण्डल से छूटा हुआ (अंशुः) यज्ञ के पदार्थों का विभाग (धिषणयोः) प्रकाश और भूमि के (पवित्रात्) पवित्र (उपस्थात्) गोद के समान स्थान से (वा) अथवा (यः) जो (अध्वर्य्योः) यज्ञ करनेवालों से (वा) अथवा (परि) सब से प्रकाशित होता है, इससे (तम्) उस यज्ञ को मैं (ते) तेरे लिये (स्वाहा) सत्यवाणी और (मनसा) मन से (वषट्कृतम्) किये हुए संकल्प के समान (जुहोमि) देता हूँ अर्थात् उसके फलदायक होने से तेरे लिये उस पदार्थ को पहुँचाता हूँ, जिसलिये यज्ञ का अनुष्ठान करने हारा तू (देवानाम्) विद्वानों के लिये (उत्क्रमणम्) ऊँची श्रेणी को प्राप्त करनेवाले ऐश्वर्य्य के समान (असि) है, इससे तुझ को सुख प्राप्त होता है ॥२६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। होता आदि विद्वान् लोग अत्यन्त दृढ़ सामग्री से यज्ञ करते हुए जिन सुगन्धि आदि पदार्थों को अग्नि में छोड़ते हैं, वे पवन और जलादि पदार्थों को पवित्र कर उसके साथ पृथिवी पर आ सब प्रकार के रोगों को निवृत्त करके सब प्राणियों को आनन्द देते हैं। इस कारण सब मनुष्यों को इस यज्ञ का सदा सेवन करना चाहिये ॥२६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरो यज्ञानुष्ठातारमुपदिशति ॥

अन्वय:

(यः) यजमानः (ते) तव (द्रप्सः) यज्ञपदार्थसमूहः। अत्र वा शर्प्रकरणे खर्परे लोप इति विसर्जनीयलोपः। (अष्टा०भा०वा०८.३.३६)। (स्कन्दति) अन्यान् प्रति गच्छति (यः) (ते) तव (अंशुः) संविभागः, अत्रामधातो रुः प्रत्ययः शकारागमश्च। (ग्रावच्युतः) ग्राव्णो मेघाच्च्युतः। ग्रावेति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (धिषणयोः) द्यावापृथिव्योः। धिषणे इति द्यावापृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०३.३०) (उपस्थात्) समीपस्थात् (अध्वर्य्योः) (वा) होत्रादीनां समुच्चये (परि) सर्वतः (वा) शुद्धगुणानां समुच्चये (यः) शुद्धपदार्थसमूहः (पवित्रात्) निर्मलात् (तम्) (ते) तुभ्यम् (जुहोमि) ददामि (मनसा) सुविचारेण (वषट्कृतम्) संकल्पितमिव (स्वाहा) सत्यवाचा (देवानाम्) आप्तानां विदुषाम् (उत्क्रमणम्) ऊर्ध्वक्रमण तेज इव (असि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.२.५.२५) व्याख्यातः ॥२६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे यज्ञपते ! द्रप्स स्कन्दति वायुना सह सर्वत्र गच्छति, यश्च ते ग्रावाच्युतोंऽशुर्धिषणयोः पवित्रादुपस्थाद् यो वा अध्वर्य्योः सकाशात् परितो वा प्रकाशते, यस्मात् तमहं ते स्वाहा मनसा वषट्कृतं जुहोमि, तत्फलदानेन तुभ्यं प्रयच्छामि, यतस्त्वं यज्ञानुष्ठाता देवानामुत्क्रमणमिवासि ॥२६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। होत्रादयो विद्वांसोऽतीव दृढया सामग्र्या यज्ञमनुष्ठीयमानान् सुरभियुक्तान् पदार्थानग्नौ प्रक्षिपन्ति, ते जलवायू संशोध्य मेघेन सह पृथिवीं प्राप्य सर्वान् रोगान्निवर्त्त्य सर्वान् प्राणिन आनन्दयन्ति। अतः सर्वैर्मनुष्यैरयं यज्ञः सदा सेव्यः ॥२६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. होता इत्यादी विद्वान दृढनिश्चयी लोक सामग्री व सुगंधी पदार्थ अग्नीत घालून यज्ञ करतात. ते पदार्थ वायू व जल यांना पवित्र करून पृथ्वीवर येतात व सर्व प्रकारचे रोग नाहीसे करून सर्व प्राण्यांना आनंदी करतात. म्हणून सर्व माणसांनी नेहमी यज्ञ केला पाहिजे.