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उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्याग्रय॒णो᳖ऽसि॒ स्वा᳖ग्रयणः। पा॒हि य॒ज्ञं पा॒हि य॒ज्ञप॑तिं॒ विष्णु॒स्त्वामि॑न्द्रि॒येण॑ पातु॒ विष्णुं त्वं पा॑ह्य॒भि सव॑नानि पाहि ॥२०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒ग्र॒य॒णः। अ॒सि॒। स्वा॑ग्रयण॒ इति॒ सुऽआग्रयणः। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽपतिम्। विष्णुः॑। त्वाम्। इ॒न्द्रि॒येण॑। पा॒तु॒। विष्णु॑म्। त्वम्। पा॒हि॒। अ॒भि। सव॑नानि। पा॒हि॒ ॥२०॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा और विद्वानों के उपदेश की रीति अगले मन्त्र में कही है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापते राजन् वा उपदेश करनेवाले ! जिस कारण आप (उपयामगृहीतः) विनय आदि राजगुणों वा वेदादि शास्त्रबोध से युक्त (असि) हैं, इससे (यज्ञम्) राजा और प्रजा की पालना कराने हारे यज्ञ को (पाहि) पालो और (स्वाग्रयणः) जैसे उत्तम विज्ञानयुक्त कर्म्मों को पहुँचानेवाले होते हैं, वैसे (आग्रयणः) उत्तम विचारयुक्त कर्म्मों को प्राप्त होनेवाले हूजिये, इससे (यज्ञपतिम्) यथावत् न्याय की रक्षा करनेवाले को (पाहि) पालो। यह (विष्णुः) जो समस्त अच्छे गुण और कर्म्मों को ठीक-ठीक जाननेवाला विद्वान् है, वह (इन्द्रियेण) मन और धन से (त्वाम्) तुझे (पातु) पाले और तुम उस (विष्णुम्) विद्वान् की (पाहि) रक्षा करो (सवनानि) ऐश्वर्य्य देनेवाले कामों की (अभि) सब प्रकार से (पाहि) रक्षा करो ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा और विद्वानों को योग्य है कि वे निरन्तर राज्य की उन्नति किया करें, क्योंकि राज्य की उन्नति के विना विद्वान् लोग सावधानी से विद्या का प्रचार और उपदेश भी नहीं कर सकते और न विद्वानों के सङ्ग और उपदेश के विना कोई राज्य की रक्षा करने के योग्य होता है तथा राजा, प्रजा और उत्तम विद्वानों की परस्पर प्रीति के विना ऐश्वर्य्य की उन्नति और ऐश्वर्य के विना आनन्द भी निरन्तर नहीं हो सकता ॥२०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राज्ञां विदुषां चोपदेशप्रकारमाह ॥

अन्वय:

(उपयामगृहीतः) विनयादिराजगुणैर्युक्तः (असि) (आग्रयणः) समन्तादग्राणि विज्ञानयुक्तानि प्रशस्तानि कर्म्माण्ययते सः। शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्। [अष्टा०वा०६.१.९१] इति पररूपम्। (असि) (स्वाग्रयणः) शोभनश्चासावाग्रयणश्च तद्वत् (पाहि) (यज्ञम्) राजप्रजापालकम् (पाहि) (यज्ञपतिम्) सङ्गतस्य न्यायस्य पालकम् (विष्णुः) सकलशुभगुणकर्म्मव्यापी विद्वान् (त्वाम्) (इन्द्रियेण) मनसा धनेन वा। इन्द्रियमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (पातु) (विष्णुम्) विद्वांसम् (त्वम्) न्यायाधीशः (पाहि) (अभि) (सवनानि) ऐश्वर्य्याणि (पाहि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.२.२.९-१९) व्याख्यातः ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापते राजन् उपदेशक वा ! यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतो यज्ञम्पाहि, स्वाग्रयण इवाग्रयणोसि, तस्माद् यज्ञपतिं पाहि। अयं विष्णुरिन्द्रियेण त्वां पातु त्वमेनं विष्णुम्पाहि सवनान्यभिपाहि ॥२०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राज्ञो विदुषां च योग्यतास्ति ते सततं राज्योन्नतिं कुर्य्युर्नहि राज्योन्नत्या विना विद्वांसो स्वास्थ्येन विद्याप्रचारयितुमुपदेष्टं च शक्नुवन्ति, न खलु विदुषां सङ्गोपदेशाभ्यां विना राज्यं रक्षितुमर्हति, न खलु राजप्रजोत्तमविदुषां परस्परं प्रीतिमन्तरैश्वर्य्योन्नतिरैश्वर्य्योन्नत्या विनाऽऽनन्दश्च सततं जायते ॥२०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा व विद्वान यांनी सतत राज्याची उन्नती करावी. कारण राज्याची उन्नती झाल्याखेरीज विद्वान लोक शांततेने विद्येचा प्रसार व उपदेश करू शकत नाहीत. विद्वानांच्या संगतीखेरीज व उपदेशाखेरीज कोणीही राज्याचे रक्षण करण्यायोग्य नसतो. राजा, प्रजा आणि उत्तम विद्वानांच्या परस्पर प्रेमाखेरीज व संमतीखेरीज ऐश्वर्याची वृद्धी होऊ शकत नाही. ऐश्वर्याच्या वृद्धीखेरीज सदैव आनंद मिळू शकत नाही.