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सु॒वीरो॑ वी॒रान् प्र॑ज॒नय॒न् परी॑ह्य॒भि रा॒यस्पोषे॑ण॒ यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒नो दि॒वा पृ॑थि॒व्या शु॒क्रः शु॒क्रशो॑चिषा॒ निर॑स्तः॒ शण्डः॑ शु॒क्रस्या॑धि॒ष्ठान॑मसि ॥१३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रान्। प्र॒ज॒नय॒न्निति॑ प्रऽज॒नय॑न्। परि॑। इ॒हि॒। अ॒भि। रा॒यः। पोषे॑ण। यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒न इति॑ सम्ऽजग्मा॒नः। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या। शु॒क्रः। शु॒क्रशो॑चि॒षेति॑ शु॒क्रऽशो॑चिषा। निर॑स्त॒ इति॒ निःऽअ॑स्तः। शण्डः॑। शु॒क्रस्य॑। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। अ॒सि॒ ॥१३॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त योग का अनुष्ठान करनेवाला योगी कैसा होता है, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे योगिन् ! (सुवीरः) श्रेष्ठ वीर के समान योगबल को प्राप्त हुए आप (वीरान्) अच्छे-अच्छे गुणयुक्त पुरुषों को (प्रजनयन्) प्रसिद्ध करते हुए (परीहि) सब जगह भ्रमण कीजिये। इसी प्रकार (यजमानम्) धन आदि पदार्थों को देनेवाले उत्तम पुरुषों के (अभि) सन्मुख (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (सञ्जग्मानः) सङ्गत हूजिये और आप (दिवा) सूर्य्य और (पृथिव्या) पृथिवी के गुणों के साथ (शुक्रः) अति बलवान् (शुक्रशोचिषा) सब को शोधनेवाले सूर्य्य की दीप्ति से (निरस्तः) अन्धकार के समान पृथक् हुए ही योगबल के प्रकाश से विषयवासना से छूटे हुए (शण्डः) शमदमादि गुणयुक्त (शुक्रस्य) अत्यन्त योगबल के (अधिष्ठानम्) आधार (असि) हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - शमदमादि गुणों का आधार योगाभ्यास में तत्पर योगीजन अपनी योगविद्या के प्रचार से योगविद्या चाहनेवालों का आत्मबल बढ़ाता हुआ सब जगह सूर्य्य के समान प्रकाशित होता है ॥१३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्तयोगमनुष्ठाता योगी कीदृग् भवतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सुवीरः) शोभनश्चासौ वीर इव (वीरान्) उत्कृष्टगुणान् (प्रजनयन्) निष्पादयन्नेव (परि) सर्वतः (इहि) प्राप्नुहि (अभि) आभिमुख्ये (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (यजमानम्) दातारम् (सञ्जग्मानः) सङ्गतवान् (दिवा) सूर्य्येण (पृथिव्या) भूम्या सह (शुक्रः) वीर्य्यवान् (शुक्रशोचिषा) शुक्रस्य शोधकस्य सूर्य्यस्य शोचिर्दीपनं तेनैव (निरस्तः) निःसारितोऽन्धकार इव (शण्डः) शमादिसहितः (शुक्रस्य) शोधकस्य योगस्य (अधिष्ठानम्) अधितिष्ठन्ति यस्मिन्निति तत् (असि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.२.१.१६) व्याख्यातः ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे योगिन् ! सुवीरस्त्वं वीरान् प्रजनयन् परीहि एवं यजमानमभि रायस्पोषेण सञ्जग्मानो दिवा पृथिव्या सह शुक्रः शुक्रशोचिषा निरस्त एव विषयवासनारहितः शण्डस्त्वं शुक्रस्याधिष्ठानमसि ॥१३॥
भावार्थभाषाः - शमदमादिगुणाधिष्ठानो योगाभ्यासनिरतो योगी स्वयोगविद्याप्रचारेण जिज्ञासूनात्मबलं वर्द्धयन् सर्वथा सूर्य्य इव प्रकाशमानो भवति ॥१३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - शम, दम गुणांचा आधार असलेल्या योगाभ्यासात योगाभ्यासी आपल्या योगविद्येच्या प्रसाराने योगविद्या शिकू इच्छिणाऱ्यांचे आत्मबल वाढवून सर्वत्र सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होतो.