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प॒रि॒वीर॑सि॒ परि॑ त्वा॒ दैवी॒र्विशो॑ व्ययन्तां॒ परी॒मं यज॑मान॒ꣳ रायो॑ मनु॒ष्या᳖णाम्। दि॒वः सू॒नुर॑स्ये॒ष ते॑ पृथि॒व्याँल्लो॒कऽआ॑र॒ण्यस्ते॑ प॒शुः ॥६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒रि॒वीरिति॑ परि॒ऽवीः। अ॒सि॒। परि॑। त्वा॒। दैवीः॑। विशेः॑। व्य॒य॒न्ता॒म्। परि॑। इ॒मम्। यज॑मानम्। रायः॑। म॒नुष्या᳖णाम्। दि॒वः। सू॒नुः। अ॒सि॒। ए॒षः। ते। पृथि॒व्याम्। लो॒कः। आ॒र॒ण्यः। ते॒। प॒शुः ॥६॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यह उपासना करनेवाला सभाध्यक्ष किस प्रकार का होता है, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष राजन् ! तू (परिवीः) सब विद्याओं में अच्छे आप्त होनेवाले के समान (असि) है, (त्वाम्) तुझे (दैवीः) विद्वानों के (विशः) सन्तान के समान प्रजा (परि) (व्ययन्ताम्) सर्वव्याप्त अर्थात् सब ठिकाने व्याप्त हुए तेरे कार्यकारी हों (दिवः) प्रकाश के पुञ्ज सूर्य से (सूनुः) उत्पन्न हुए किरण समुदाय के तुल्य तू (असि) है, (ते) तेरा (पृथिव्याम्) पृथिवी में (लोकः) राजधानी का देश हो और (आरण्यः) बनैले सिंहादि दुष्ट पशु तेरे वश्य भी हों ॥६॥
भावार्थभाषाः - राज्य का आचरण करते हुए राजा को प्रजा लोग प्राप्त होकर अपने पदार्थों का कर चुकावें और वह राजा उन प्रजाओं की रक्षा करने के लिये सिंह और शूकर वा अन्य और दुष्ट जीव तथा डाकू, चोर उठाईगीरे और गाँठ कटे आदि दुष्ट जनों को दण्ड से वश में कर अपनी प्रजा को यथायोग्य धर्म में प्रवृत्त करे ॥६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेतदुपासकः सभाध्यक्षः कीदृगित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(परिवीः) यथा परितः सर्वतः सर्वा विद्या व्येति व्याप्नोति तथा (असि) (परि) सर्वतः (त्वा) त्वां सभाध्यक्षम् (दैवीः) देवानां विदुषामिमाः (विशः) प्रजाः (व्ययन्ताम्) विशिष्टतया प्राप्नुवन्तु जानन्तु वा (परि) सर्वतः (इमम्) प्रत्यक्षम् (यजमानम्) यज्ञानुष्ठातारम् (रायः) धनानि (मनुष्याणाम्) (दिवः) प्रकाशमयात् सूर्यात् सूयत उत्पद्यते किरणसमूह इव (असि) (एषः) (ते) तव (पृथिव्याम्) (लोकाः) राष्ट्रं राज्यस्थानम् (आरण्यः) अरण्ये भवः (ते) तव (पशुः) पश्यकश्चतुष्पात् सिंहादिः ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.१-२१) व्याख्यातः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष राजन् ! त्वं परिवीः सर्वाविद्याव्यापकवदसि त्वा त्वां दैवीर्विशः परिव्ययन्ताम्। त्वं दिवः सूनुरिवासि, पृथिव्यामेष ते तव लोकोऽस्तु, आरण्यः पशुः सिंहादिरप्यधीनोऽस्तु ॥६॥
भावार्थभाषाः - राज्यमाचरन्तं राजानं प्रजाजना अभ्याश्रित्य करं विनयन्तु, स राजा प्रजापालनाय सिंहादिपशून् दस्युप्रभृतीञ्च निहत्य स्वप्रजा यथायोग्यं धर्मे संस्थापयेत् ॥६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने राज्यव्यवस्थेप्रमाणे राजाला वस्तूंवरील कर द्यावा व राजानेही प्रजेचे रक्षण करण्यासाठी सिंह, वराह व इतर दुष्ट प्राणी आणि चोर, डाकू, लुटारू इत्यादी दुष्ट लोकांना दंड देऊन नियंत्रणात ठेवावे व प्रजेला धर्मात प्रवृत्त करावे.