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मनो॑ मे तर्पयत॒ वाचं॑ मे तर्पयत प्रा॒णं मे॑ तर्पयत॒ चक्षु॑र्मे तर्पयत॒ श्रोत्रं॑ मे तर्पयता॒त्मानं॑ मे तर्पयत प्र॒जां मे॑ तर्पयत प॒शून् मे॑ तर्पयत ग॒णान्मे॑ तर्पयत ग॒णा मे॒ मा वितृ॑षन् ॥३१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मनः॑। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। वाच॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प्रा॒णम्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। चक्षुः॑। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। आ॒त्मान॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प॒शून्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। ग॒णान्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। ग॒णाः। मे॒। मा। वि। तृ॒ष॒न् ॥३१॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा अपने सभासदों और सभा राजा को क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभ्यजनो और प्रजाजनो ! तुम अपने गुणों से (मे) मेरे (मनः) मन को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरी (वाचम्) वाणी की (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (प्राणम्) प्राण को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (आत्मानम्) आत्मा को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरी (प्रजाम्) सन्तानादि प्रजा को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (पशून्) गौ, हाथी, घाड़े आदि पशुओं को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (गणान्) सेवकों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, जिससे (मे) मेरे (गणाः) राज्य वा प्रजा कर्माधिकारी वा सेवकजन कामों में (मा) मत (वितृषन्) उदास हों ॥३१॥
भावार्थभाषाः - राज्य का प्रबन्ध सभाधीन ही होने के योग्य है, जिससे प्रजाजन राजसेवक और राजपुरुष प्रजा की सेवा करने हारे अपने-अपने कामों में प्रवृत्त होके सब प्रकार एक-दूसरे को आनन्दित करते रहें ॥३१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजा सभ्यजनान् सभा राजानञ्च किमुपदिशेदित्याह ॥

अन्वय:

(मनः) अन्तःकरणम् (मे) (तर्प्पयत) (वाचम्) (मे) (तर्प्पयत) (प्राणम्) (मे) (तर्प्पयत) (चक्षुः) (मे) (तर्प्पयत) (श्रोत्रम्) (मे) (तर्प्पयत) (आत्मानम्) (मे) (तर्प्पयत) (प्रजाम्) सन्तानादिकम् (मे) (तर्प्पयत) (पशून्) गोहस्त्यश्वादीन् (मे) (तर्प्पयत) (गणान्) परिचारकादीन् (मे) (तर्प्पयत) (गणाः) (मे) मम (मा) निषेधार्थे (वि) विरुद्धार्थे (तृषन्) तृषिता भवन्तु। अत्र लोडर्थे लुङ् ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.९.४.७-८) व्याख्यातः ॥३१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाजनाः प्रजाजना वा ! यूयं स्वगुणैर्मे मम मनस्तर्प्पयत, मे वाचं तर्प्पयत, मे प्राणं तर्प्पयत, मे चक्षुस्तर्प्पयत, मे श्रोत्रं तर्प्पयत, मे ममात्मानं तर्प्पयत, मे प्रजां तर्प्पयत, मे पशूंस्तर्प्पयत, मे गणांस्तर्प्तयत, यतो मे गणा मा वितृषन् तृषिता मा भवन्तु ॥३१॥
भावार्थभाषाः - सभाधीनमेव राज्यप्रबन्धो भवितुमर्हति, यतः सर्वे प्रजाजना राजसेवका राजजनाः प्रजासेविनो भूत्वा स्वेषु कर्म्मसु प्रवृत्त्यान्योऽन्यमभिमोदयेयुरिति ॥३१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राज्याची व्यवस्था सभेच्या आधीन असावी. प्रजा, राजसेवक व राज्य कर्मचारी यांनी आपापल्या कामात दक्ष राहून सर्व प्रकारे एकमेकांना आनंदित करावे.