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सोम॑ राज॒न् विश्वा॒स्त्वं प्र॒जाऽउ॒पाव॑रोह॒ विश्वा॒स्त्वां प्र॒जाऽउ॒पाव॑रोहन्तु। शृ॒णोत्व॒ग्निः स॒मिधा॒ हवं॑ मे शृ॒ण्वन्त्वापो॑ धि॒षणा॑श्च दे॒वीः। श्रोता॑ ग्रावाणो वि॒दुषो॒ न य॒ज्ञꣳ शृ॒णोतु॑ दे॒वः स॑वि॒ता हवं॑ मे॒ स्वाहा॑ ॥२६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोम॑। रा॒ज॒न्। विश्वाः॑। त्वम्। प्रजा॒ इति॑ प्र॒ऽजाः। उ॒पाव॑रो॒हेत्यु॑प॒ऽअव॑रोह। विश्वाः॑। त्वाम्। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। उपाव॑रोह॒न्त्वित्यु॑प॒ऽअव॑रोहन्तु। शृ॒णोतु॑। अ॒ग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। हव॑म्। मे॒। शृ॒ण्वन्तु॑। आपः॑। धि॒षणाः॑। च॒। दे॒वीः। श्रोत॑। ग्रा॒वा॒णः॒। वि॒दुषः॑। न। य॒ज्ञम्। शृ॒णोतु॑। दे॒वः। स॒वि॒ता। हव॑म्। मे॒। स्वाहा॑ ॥२६॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गुरुजन क्षत्रिय, शिष्य और प्रजाजन को उपदेश करता है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) श्रेष्ठ ऐश्वर्ययुक्त (राजन्) समस्त उत्कृष्ट गुणों से प्रकाशमान सभाध्यक्ष ! (त्वम्) तू पिता के तुल्य (विश्वाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजनों का (उपावरोह) समीपवर्ती होकर रक्षा कर और (त्वाम्) तुझे (विश्वाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजन पुत्र के समान (उपावरोहन्तु) आश्रित हों। हे सभाध्यक्ष ! आप जैसे (समिधा) प्रदीप्त करनेवाले पदार्थ से (अग्निः) सर्व गुणवाला अग्नि प्रकाशित होता है, वैसे (मे) मेरी (हवम्) प्रगल्भवाणी को (शृणोतु) सुन के न्याय से प्रकाशित हूजिये (च) और (आपः) सब गुणों में व्याप्त (धिषणाः) विद्या बुद्धियुक्त (देवीः) उत्तमोत्तम गुणों से प्रकाशमान तेरी पत्नी भी माताओं के समान स्त्रीजनों के न्याय को (शृण्वन्तु) सुनें। हे (ग्रावाणः) सत्-असत् के करनेवाले विद्वान् सभासदो ! तुम हम लोगों के अभिप्राय को हमारे कहने से (श्रोत) सुनो तथा (देवः) विद्या से प्रकाशित (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सभापति (विदुषः) विद्वानों के (यज्ञम्) यज्ञ के (न) समान (मे) हमारे प्रजा लोगों के (हवम्) निवेदन को (स्वाहा) स्तुतिरूप वाणी जैसे हो वैसे (शृणोतु) सुने ॥२६॥
भावार्थभाषाः - राजा और प्रजाजन परस्पर सम्मति से समस्त राज्यव्यवहारों की पालना करें ॥२६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गुरुजनः क्षत्रियं शिष्यं प्रजाजनांश्च प्रत्युपदिशति ॥

अन्वय:

(सोम) प्रशस्तैश्वर्य्ययुक्त (राजन्) सर्वोत्कृष्टगुणैः प्रकाशमान ! (विश्वाः) सर्वाः (त्वम्) (प्रजाः) पालनीयाः (उपावरोह) उपवर्तस्व (विश्वाः) सर्वाः (त्वाम्) पितरमपत्यानीव सुखाय (प्रजाः) प्रजननीयाः (उपावरोहन्तु) समुपाश्रयन्तु (शृणोतु) (अग्निः) पावकः (समिधा) समिधेव (हवम्) अर्चनम् (मे) मम (शृण्वन्तु) (आपः) शुभगुणकर्मव्याप्ताः (धिषणाः) धृष्टा वाचो यासां ताः। धिषणेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (च) पक्षान्तरे (देवीः) विदुष्यः (श्रोत) शृणुत। अत्र तस्य स्थाने तप्तनप्तनथनाश्च। (अष्टा०७.१.४५) अनेन तबादेशः। द्व्यचोऽतस्तिङः। (अष्टा०६.३.१३५) इति दीर्घः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७३) इति श्नुलोपश्च। (ग्रावाणः) सदसद्विवेचका विद्वांसः। ग्रावाण इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) (विदुषः) (न) इव (यज्ञम्) (शृणोतु) (देवः) विद्याप्रकाशितः (सविता) ऐश्वर्य्यवान् (हवम्) (मे) मम (स्वाहा) स्तुतियुक्ता वाग्यथा तथा ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.९.३.६-२४) व्याख्यातः ॥२६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोमराजन् ! त्वं पितेव विश्वाः प्रजा उपावरोह, त्वां विश्वाः प्रजा अपत्यानीवोपावरोहन्तु। भवान् समिधाग्निरिव मे मम प्रजाजनस्य हवं शृणोतु, या आपो धिषणा देवीः देव्यः पत्न्यश्च मातरमिव स्त्रीन्यायं शृण्वन्तु। हे ग्रावाणः स्तावका विद्वांसः सभासदः ! यूयं मम हवं श्रोत देवः सविता भवान् विदुषो यज्ञं न इव मे मम हवं स्वाहा शृणोतु ॥२६॥
भावार्थभाषाः - राजा प्रजाश्च परस्परानुमत्या सर्वान् राजव्यवहारन् पालयेयुरिति ॥२६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा व प्रजा यांनी परस्पर विचारविनिमयाने सर्व राज्यव्यवहार करावा.