वांछित मन्त्र चुनें

रक्ष॑सां भा᳖गो᳖ऽसि॒ निर॑स्त॒ꣳ रक्ष॑ऽइ॒दम॒हꣳ रक्षो॒ऽभिति॑ष्ठामी॒दम॒हꣳ रक्षोऽव॑बाधऽइ॒दम॒हꣳ रक्षो॑ऽध॒मं तमो॑ नयामि। घृ॒तेन॑ द्यावापृथिवी॒ प्रोर्णु॑वाथां॒ वायो॒ वे स्तो॒काना॑म॒ग्निराज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॒ स्वाहा॑कृतेऽऊ॒र्ध्वन॑भसं मारु॒तं ग॑च्छतम् ॥१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रक्षसा॒म्। भा॑गः॒। अ॒सि॒। निर॑स्त॒मिति॒ निःऽअ॑स्तम्। रक्षः॑ इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अ॒भि। ति॒ष्ठा॒मि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अव॑बा॒धे॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अ॒ध॒मम्। तमः॑। न॒या॒मि॒। घृ॒तेन॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ द्यावापृथिवी। प्र। ऊ॒र्णु॒वा॒था॒म्। वायो॒ऽइति॒ वायो॑। वेः। स्तो॒काना॑म्। अ॒ग्निः। आज्य॑स्य। वे॒तु॒। स्वाहा॑। स्वाहा॑कृत॒ऽइति॒ स्वाहा॑ऽकृते। ऊ॒र्ध्वन॑भस॒मित्यू॒र्ध्वन॑भसम्। मा॒रु॒तम्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥१६॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:16


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शिष्यवर्गों में से प्रति शिष्य को यथायोग्य उपदेश करना अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे दुष्टकर्म करनेवाले जन ! तू (रक्षसाम्) दुष्टों अर्थात् परार्थ नाश कर अपना अभीष्ट करनेवालों का (भागः) भाग (असि) है, इस कारण (रक्षः) राक्षस स्वभावी तू (निरस्तम्) निकल जा (अहम्) मैं (इदम्) ऐसे (रक्षः) स्वार्थसाधक को (अभितिष्ठामि) तिरस्कार करने के लिये सम्मुख होता हूँ और केवल सम्मुख ही नहीं, किन्तु (अहम्) मैं (इदम्) ऐसे (रक्षः) दुष्ट जन को (अवबाधे) अत्यन्त तिरस्कार के साथ पीटता हूँ, जिससे वह फिर सामने न हो और (अहम्) मैं (इदम्) ऐसे (रक्षः) दुष्ट जन को (अधमम्) दुःसह दुःख को (नयामि) पहुँचाता हूँ। अब श्रेष्ठ गुणग्राही शिष्य के लिये उपदेश है। हे (वायो) गुणग्राहक ! सत्-असत् व्यवहार की विवेचना करनेवाला तू (स्तोकानाम्) सूक्ष्म से सूक्ष्म व्यवहारों को (वेः) जान और तेरे यज्ञशोधित जल से (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (प्रोर्णुवाथाम्) अच्छे प्रकार आच्छादित हों (अग्निः) समस्त विद्यायुक्त विद्वान तेरे घृत आदि पदार्थ के (स्वाहा) अच्छे होम किये हुए को (वेतु) जाने तथा (स्वाहाकृते) हवन किये हुए स्नेहद्रव्य को प्राप्त पूर्वोक्त जो सूर्य और भूमि हैं, वे (ऊर्ध्वनभसम्) तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए जल को ऊपर पहुँचानेवाले (मारुतम्) पवन को (गच्छतम्) प्राप्त हों ॥१६॥
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् श्रेष्ठ और अनिष्ट के विवेक करनेवाले विद्वान् लोग अपने शिष्यों में यथायोग्य शिक्षा विधान करते हैं। यज्ञकर्म से जल और पवन की शुद्धि, उसकी शुद्धि से वर्षा और उससे सब प्राणियों को सुख उत्पन्न होता है ॥१६॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिष्यवर्गेषु यथायोग्योपदेशकरणमाह ॥

अन्वय:

(रक्षसाम्) रक्षन्ति परार्थहननेन स्वार्थमिति रक्षांसि तेषाम् (भागः) सेवनीयः (असि) (निरस्तम्) निःसृतम् (रक्षः) सर्वतः स्वार्थरक्षकः परार्थहन्ता (इदम्) (अहम्) (रक्षः) (अभि) सम्मुखे (तिष्ठामि) (इदम्) (अहम्) (रक्षः) रक्षति सर्वतः स्वार्थनिमित्तीभूतं कर्म (अव) अर्वागर्थे (बाधे) नाशयामि (इदम्) (अहम्) (रक्षः) (अधमम्) नीचं (तमः) अन्धकारम् (नयामि) प्रापयामि (घृतेन) जलेन (द्यावापृथिवी) भूमिप्रकाशौ (प्र) प्रकृष्टार्थे (ऊर्णुवाथाम्) आच्छादयताम् (वायो) वाति जानाति सूचयति सदसत् पदार्थानिति वा वायुस्तत्संबुद्धौ (वेः) विद्धि, अत्र लोडर्थे लङ्। (स्तोकानाम्) स्वल्पानाम्, शेषविवक्षातः कर्मणि षष्ठी। (अग्निः) सर्वविद्याप्राप्तो विद्वान् (आज्यस्य) स्नेहद्रव्यस्य (स्वाहाकृते) सत्यवाचामुपगते व्यवहारे (ऊर्ध्वनभसम्) ऊर्द्ध्वं नभो जलं यस्मात् तम् (मारुतम्) (गच्छतम्) ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे दुष्टकर्मकारिन् ! त्वं रक्षसां भागोऽस्यतो रक्षो निरस्तं भव, अहं इदं रक्षोऽभितिष्ठामि तिरस्करणाय तत्सम्मुखमुपविशामि, न केवलमभितिष्ठामि, किन्तु अहमिदं रक्षोदुष्टस्वभाविनमवबाधेऽर्वाचीनो यथा स्यात् तथा हन्मि, यतो न पुनः सम्मुखो भूयादिति भावः। अहमिदं रक्षोऽधमं तमो नयामि, दुःसहदुःखं प्रापयामि च। हे वायो ! गुणग्राहकसदसद्विवेचनशील शिष्य ! त्वं स्तोकानां स्तोकान् सूक्ष्मव्यवहारान् वेः विद्धि, त्वद्यज्ञशोधितेन घृतेन द्यावापृथिवी प्रोर्णुवाथाम् आच्छादयेताम्। अग्निः समस्तविद्यापन्नो विद्वाँस्तवाज्यस्य स्नेहद्रव्यं स्वाहा वेत्तु जानातु तथा स्वाहाकृते पूर्वोक्ते द्यावापृथिव्यौ ऊर्ध्वनभसं त्वद्यज्ञशोधितजलमूर्ध्वप्रापकं मारुतं गच्छतम् प्राप्नुतम् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - बुद्धिमन्तः सदसद्विवेचका विद्वांसः शिष्येषु यथायोग्यशिक्षणमनुविदधति, यज्ञकर्मणा जलवायुशुद्ध्या वृष्टिर्भवति, वृष्ट्यैव सर्वप्राणिभ्य सुखं संपद्यते ॥१६॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - चांगल्या व वाईटाचा विवेक करणारे बुद्धिमान श्रेष्ठ विद्वान आपल्या शिष्यांना यथायोग्य शिक्षण देतात. यज्ञकर्माने जल व वायूची शुद्धी होते व त्यामुळे वृष्टी होऊन सर्व प्राण्यांना सुख मिळते.