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मन॑स्त॒ऽआप्या॑यतां॒ वाक् त॒ऽआप्या॑यतां प्रा॒णस्त॒ऽआप्या॑यतां॒ चक्षु॑स्त॒ऽआप्या॑यता॒ श्रोत्रं॑ त॒ऽआप्या॑यताम्। यत्ते॑ क्रू॒रं यदास्थि॑तं॒ तत्त॒ऽआप्या॑यतां॒ निष्ट्या॑यतां॒ तत्ते॑ शुध्यतु॒ शमहो॑भ्यः। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः ॥१५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मनः॑। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। वाक्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। प्रा॒णः। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। चक्षुः॑। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। यत्। ते॒। क्रू॒रम्। यत्। आस्थि॑त॒मित्याऽस्थि॑तम्। तत्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। निः। स्त्या॒य॒ता॒म्। तत्। ते॒। शु॒ध्य॒तु। शम्। अहो॑भ्य॒ इत्यहः॑ऽभ्यः। ओष॑धे। त्राय॑स्व। स्वधि॑त॒ इति॒ स्वऽधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥१५॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी प्रकारान्तर से अगले मन्त्र में उक्त अर्थ का प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! मेरी शिक्षा से (ते) तेरा (मनः) मन (आप्यायताम्) पर्य्याप्त गुणयुक्त हो, (ते) तेरा (प्राणः) प्राण (आप्यायताम्) बलादि गुणयुक्त हो, (ते) तेरी (चक्षुः) दृष्टि (आप्यायताम्) निर्मल हो, (ते) तेरे (श्रोत्रम्) कर्ण (आप्यायताम्) सद्गुण व्याप्त हों, (ते) तेरा (यत्) जो (क्रूरम्) दुष्ट व्यवहार है, वह (निः) (स्त्यायताम्) दूर हो और (यत्) जो (ते) तेरा (आस्थितम्) निश्चय है, वह (आप्यायताम्) पूरा हो। इस प्रकार से (ते) तेरा समस्त व्यवहार (शुध्यतु) शुद्ध हो और (अहोभ्यः) प्रतिदिन तेरे लिये (शम्) सुख हो। हे (ओषधे) प्रवर अध्यापक ! आप (एनम्) इस शिष्य की (त्रायस्व) रक्षा कीजिये और (मा हिंसीः) व्यर्थ ताड़ना मत कीजिये। हे (स्वधिते) प्रशस्ताध्यापिके ! तू इस कुमारिका शिष्या की (त्रायस्व) रक्षा कर और इस को अयोग्य ताड़ना मत दे ॥१५॥
भावार्थभाषाः - सत्कर्म करने से सब की उन्नति होती है, इस से सब मनुष्यों को चाहिये कि सुशिक्षा पाकर समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करें। इसी से अध्यापक जन गुणग्रहण कराने ही के लिये शिष्यों को ताड़ना देते हैं, वह उनकी ताड़ना अत्यन्त सुख की करनेवाली होती है। स्त्री और पुरुष इस प्रकार उपदेश करें कि हे सर्वोत्तम अध्यापक ! यह आपका विद्यार्थी जैसे शीघ्र विद्वान् हो जाय, वैसा प्रयत्न कीजिये। हे प्रिये ! यह कन्या जिस प्रकार अतिशीघ्र विद्यायुक्त हो, वैसा काम कर ॥१५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरुक्तोऽर्थः प्रकारान्तरेण प्रकाश्यते ॥

अन्वय:

(मनः) संकल्पविकल्पात्मकम् (ते) तव (आ) (प्यायताम्) सत्कर्म्मानुष्ठानेन वर्द्धताम् (वाक्) (ते) (आ) (प्यायताम्) (प्राणः) (ते) (आ) (प्यायताम्) (चक्षुः) (ते) (आ) (प्यायताम्) (श्रोत्रम्) (ते) (आ) (प्यायताम्) (यत्) (ते) तव (क्रूरम्) दुश्चरित्रम् (यत्) (आस्थितम्) निश्चितम् (तत्) (ते) (आ) (प्यायताम्) (निः) पृथगर्थे (स्त्यायताम्) संहन्यताम् (तत्) (ते) (शुध्यतु) (शम्) सुखम् (अहोभ्यः) कालविशेषेभ्यः (ओषधे) ओषो विज्ञानं धीयते यस्मिंस्तत्संबुद्धौ। अत्र ओष गतावित्यस्माद् गतिरत्र विज्ञानं गृह्यते। (त्रायस्व) (स्वधिते) स्वेष्वात्मीयेषु धितिः पोषणं यस्यास्तत्संबुद्धौ (मा) निषेधे (एनम्) पूर्वोक्तम् (हिंसीः) कुशिक्षया लालनेन वा मा विनाशयेः ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! मदीयशिक्षणेन ते तव मन आप्यायताम्, ते वागाप्यायताम्, ते प्राण आप्यायताम्, ते चक्षुराप्यायताम्, ते श्रोत्रमाप्यायताम्, ते यत्क्रूरं दुश्चरित्रं तत् निष्ट्यायताम् दूरीगच्छतु, यत् ते तवास्थितं निश्चितं तदाप्यायताम्, इत्थं ते सर्वं शुध्यतु, अहोभ्यो दिनेभ्यस्तुभ्यं शमस्तु। अथ स्वस्वामिनि शिष्यलालनापरं गुरुपत्नीवाक्यम्। हे ओषधे ! विज्ञानवराध्यापक ! त्वमेनं शिष्यं त्रायस्व, मा हिंसीः। स च स्वपत्नी प्रत्याह−हे स्वधितेऽध्यापिके स्त्रि ! त्वेमनां त्रायस्व, मा हिंसीश्च ॥१५॥
भावार्थभाषाः - सत्कर्म्मानुष्ठानेन सर्वस्योन्नतिर्भवत्यतः सर्वैर्मनुष्यैर्गुरुशिक्षया समस्तसत्कर्म्मानुष्ठेयम्। गुरवो गुणग्रहणायैव शिष्याणां ताडनं विदधति, ततस्तेषामिदमभ्युदयनिःश्रेयसकारि जायत एवेति बोध्यम्। दम्पती परस्परमेवमुपदिशेताम्। हे पते ! भवानयं शिष्यो यथा सद्यो विद्वान् स्यात् तथा प्रयतताम्। हे धर्मपत्नि ! भवति यथेयं कन्या तूर्णं विदुषी भवेत् तथा विदधातु ॥१५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सत्कर्म करण्याने सर्वांची उन्नती होते. यासाठी सर्व माणसांनी चांगले शिक्षण घेऊन सत्कर्माचे अनुष्ठान करावे. त्यासाठी अध्यापक शिष्यांना शिक्षा करतात. ती योग्य असते. स्त्री व पुरुषांनी अध्यापकाला असा उपदेश करावा, हे उत्तम अध्यापकांनो ! हा तुमचा विद्यार्थी लवकरात लवकर विद्वान होईल, असा प्रयत्न करा. हे अध्यापिके ! ही कन्या ज्या प्रकारे लवकर विदुषी होईल, असे प्रयत्न कर.