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वाचं॑ ते शुन्धामि प्रा॒णं ते॑ शुन्धामि॒ चक्षुस्ते॑ शुन्धामि॒ श्रोत्रं॑ ते शुन्धामि॒ नाभिं॑ ते शुन्धामि॒ मेढ्रं॑ ते शुन्धामि पा॒युं ते॑ शुन्धामि च॒रित्राँ॑स्ते शुन्धामि ॥१४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वाच॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। प्रा॒णम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। चक्षुः॑। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। श्रोत्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। नाभि॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। मेढ्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। पा॒युम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। च॒रित्रा॑न्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒ ॥१४॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वे गुरुपत्नी और गुरुजन यथायोग्य शिक्षा से अपने-अपने विद्यार्थियों को अच्छे-अच्छे गुणों में कैसे प्रकाशित करते हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! मैं विविध शिक्षाओं से (ते) तेरी (वाचम्) जिस से बोलता है, उस वाणी को (शुन्धामि) शुद्ध अर्थात् सद्धर्मानुकूल करता हूँ। (ते) तेरे (चक्षुः) जिस से देखता है, उस नेत्र को (शुन्धामि) शुद्ध करता हूँ। (ते) तेरी (नाभिम्) जिस से नाड़ी आदि बाँधे जाते हैं, उस नाभि को (शुन्धामि) पवित्र करता हूँ। (ते) तेरे (मेढ्रम्) जिससे मूत्रोत्सर्गादि किये जाते हैं, उस लिङ्ग को (शुन्धामि) पवित्र करता हूँ। (ते) तेरे (पायुम्) जिस से रक्षा की जाती है, उस गुदेन्द्रिय को (शुन्धामि) पवित्र करता हूँ। (चरित्रान्) समस्त व्यवहारों को (शुन्धामि) पवित्र शुद्ध अर्थात् धर्म के अनुकूल करता हूँ, तथा गुरुपत्नी पक्ष में सर्वत्र ‘करती हूँ’ यह योजना करनी चाहिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - गुरु और गुरुपत्नियों को चाहिये कि वेद और तथा वेद के अङ्ग और उपाङ्गों की शिक्षा से देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण और मन की शुद्धि, शरीर की पुष्टि तथा प्राण की सन्तुष्टि देकर समस्त कुमार और कुमारियों को अच्छे-अच्छे गुणों में प्रवृत्त करावें ॥१४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कथं ता गुरुपत्न्यो गुरवश्च यथायोग्यशिक्षया स्वस्वान्तेवासिनः सद्गुणेषु प्रकाशयन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(वाचम्) वक्त्यनया तां वाणीम् (ते) तव (शुन्धामि) निर्मलीकरोमि (प्राणम्) प्राणिति येन तं जीवनहेतुम् (ते) (शुन्धामि) (चक्षुः) चष्टेऽनेन तन्नेत्रम् (ते) (शुन्धामि) (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (ते) (शुन्धामि) (नाभिम्) नह्यते बध्यते यथा ताम् (ते) (शुन्धामि) (मेढ्रम्) मेहत्यनेन तदुपस्थेन्द्रियम् (ते) (शुन्धामि) (पायुम्) पात्यनेन तं गुह्येन्द्रियम् (ते) (शुन्धामि) (चरित्रान्) व्यवहारान् (ते) (शुन्धामि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.८.२.६) व्याख्यातः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! विविधशिक्षाभिस्तेऽहं वाचं शुन्धामि, ते प्राणं शुन्धामि, ते चक्षुः शुन्धामि, ते श्रोत्रं शुन्धामि, ते नाभिं शुन्धामि, ते मेढ्रं शुन्धामि, ते पायुं शुन्धामि, ते चरित्रान् शुन्धामि ॥१४॥
भावार्थभाषाः - गुरुभिर्गुरुपत्नीभिश्च वेदोपवेदवेदाङ्गोपाङ्गशिक्षया देहेन्द्रियान्तःकरणात्ममनःशुद्धिशरीरपुष्टिप्राणसन्तुष्टीः प्रदाय सर्वे कुमाराः सर्वाः कन्याश्च सद्गुणेषु प्रवर्त्तयितव्या इति ॥१४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गुरू व गुरुपत्नी यांनी कुमार-कुमारी यांना वेद, उपवेद, वेदांग, उपांग यांचे शिक्षण देऊन देह, इंद्रिये, अंतःकरण, मनशुद्धी, शरीरपुष्टी, प्राण सुदृढ करून त्यांना चांगल्या प्रकारे शुभ गुणांमध्ये प्रवृत्त करावे.