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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्रीवाऽअपि॑कृन्तामि। यवो॑ऽसि य॒वया॒स्मद् द्वेषो॑ य॒वयारा॑तीर्दि॒वे त्वा॒ऽन्तरि॑क्षाय त्वा पृथि॒व्यै त्वा॒ शुन्ध॑न्ताँल्लो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑नमसि ॥१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। नारि॑। अ॒सि॒। इदम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। यवः॑। अ॒सि॒। य॒वय॑। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। य॒वय॑। अरा॑तीः। दि॒वे। त्वा॒। अ॒न्तरि॑क्षाय। त्वा॒। पृ॒थि॒व्यै। त्वा॒। शुन्ध॑न्ताम्। लो॒काः। पि॒तृ॒षद॑नाः। पि॒तृ॒सद॑ना॒ इति॑ पितृ॒ऽसद॑नाः। पि॒तृ॒षद॑नम्। पि॒तृ॒ष॑दन॒मिति॑ पि॒तृ॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒ ॥१॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँचवें अध्याय के पश्चात् षष्ठाऽध्याय (६) का आरम्भ है, इस के प्रथम मन्त्र में राज्याभिषेक के लिये अच्छी शिक्षायुक्त सभाध्यक्ष विद्वान् को आचार्य्यादि विद्वान् लोग क्या-क्या उपदेश करें, यह उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! जैसे (पितृषदनाः) पितरों में रहनेवाले विद्वान् लोग (देवस्य) प्रकाशमय और (सवितुः) सब विश्व के उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बल और उत्तम वीर्य्य से तथा (पूष्णः) पुष्टि का निमित्त जो प्राण है, उस के (हस्ताभ्याम्) धारण और आकर्षण से (त्वा) तुझे ग्रहण करते हैं, वैसे ही मैं (आददे) ग्रहण करता हूँ। जैसे मैं (रक्षसाम्) दुष्ट काम करनेवाले जीवों के (ग्रीवाः) गले (कृन्तामि) काटता हूँ, वैसे तू (अपि) भी काट। हे सभाध्यक्ष ! जिस कारण तू (यवः) संयोग-विभाग करनेवाला (असि) है, इस कारण (अस्मत्) मुझ से (द्वेषः) द्वेष अर्थात् अप्रीति करनेवाले वैरियों को (यवय) अलग कर और (अरातीः) जो मेरे निरन्तर शत्रु हैं, उन को (यवय) पृथक् कर। जैसे मैं न्याय व्यवहार से रक्षा करने योग्य जन (दिवे) विद्या आदि गुणों के प्रकाश करने के लिये (त्वा) न्याय प्रकाश करनेवाले तुझको (अन्तरिक्षाय) आभ्यन्तर व्यवहार में रक्षा करने के लिये (त्वा) तुझ सत्य अनुष्ठान करने का अवकाश देनेवाले को तथा (पृथिव्यै) भूमि के राज्य के लिये (त्वा) तुझ राज्य विस्तार करनेवाले को पवित्र करता हूँ, वैसे ये लोग भी (त्वा) आप को (शुन्धन्ताम्) पवित्र करें, जैसे तू (पितृषदनम्) विद्वानों के घर के समान (असि) है, पिता के सदृश सब प्रजा को पाला कर। हे सभापति की नारि स्त्री ! तू भी ऐसा ही किया कर ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्या में अतिविचक्षण पुरुष ईश्वर की सृष्टि में अपनी और औरों की दुष्टता को छुड़ाकर राज्य सेवन करते हैं, वे सुखयुक्त होते हैं ॥१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राज्याभिषेकाय सुशिक्षितं सभाध्यक्षं विद्वांसं प्रत्याचार्य्यादयः किं किमुपदिशेयुरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवस्य) द्योतमानस्य (त्वा) त्वां सभाध्यक्षम् (सवितुः) सर्वविश्वोत्पादकस्य (प्रसवे) यथेश्वरसृष्टौ (अश्विनोः) प्राणोदानयोः (बाहुभ्याम्) यथा बलवीर्याभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिनिमित्तस्य प्राणस्य (हस्ताभ्याम्) धारणाकर्षणाभ्याम् (आददे) गृह्णामि (नारि) यज्ञसहकारिणि (असि) (इदम्) युद्धाख्यं कृत्वा (अहम्) (रक्षसाम्) दुष्टकर्मकारिणाम् (ग्रीवाः) कण्ठान् (अपि) (कृन्तामि) छिनद्मि (यवः) संयोगविभागकर्त्ता (असि) (यवय) वा छन्दसि। (अष्टा०भा०वा०१.४.९) इति वृद्ध्यभावः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (द्वेषः) द्वेषकान् (यवय) वियुहि (अरातीः) शत्रून् (दिवे) विद्यादिप्रकाशाय (त्वा) त्वां न्यायप्रकाशम् (अन्तरिक्षाय) अन्तरक्षयमिति। (निरु०२.१०) अन्तरिक्षमित्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। (निघं०१.३) (त्वा) सत्यानुष्ठानावकाशदम् (पृथिव्यै) भूमिराज्याय (त्वा) राज्यविस्तारकम् (शुन्धन्ताम्) (लोकाः) न्यायदृष्ट्या समीक्षणीयाः (पितृषदनाः) यथा पितृषु सीदन्ति ते। पितर इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (पितृषदनम्) यथा विद्वत्स्थानम् (असि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.१.१-२) व्याख्यातः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष! यथा पितृषदना देवस्य सवितुः प्रसवे अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वामाददाति, तथाहमाददे। यथाऽहं रक्षसां ग्रीवाः कृन्तामि तथा त्वमपि कृन्त। हे सभाध्यक्ष ! त्वं यवोऽस्यस्मद् द्वेषो यवयारातीर्यवय तथाऽहं दिवे त्वाऽन्तरिक्षाय त्वा पृथिव्यै त्वा त्वां शुन्धामि तथेमे पितृषदना लोकास्त्वां शुन्धन्ताम्। यतस्त्वं पितृषदनमिवासि तस्मात् पितृपालको भव। हे सभापतेर्नारि ! भवत्याऽप्येवमेव कार्य्यम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्यानिष्णाता ईश्वरसृष्टौ स्वस्य परेषां च दुष्टतां विधूय राज्यं सेवन्ते ते सुखिनो भवन्ति ॥१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वराने निर्माण केलेल्या सृष्टीत जे अत्यंत विद्वान पुरुष स्वतःची व इतरांची दुष्ट वृत्ती नाहीशी करून राज्य करतात ते सुखी होतात.