वांछित मन्त्र चुनें

अत्य॒न्याँ२ऽअगां॒ नान्याँ२ऽउपा॑गाम॒र्वाक् त्वा॒ परे॒भ्योऽवि॑दं प॒रोऽव॑रेभ्यः। तं त्वा॑ जुषामहे देव वनस्पते देवय॒ज्यायै॑ दे॒वास्त्वा॑ देवय॒ज्यायै॑ जुषन्तां॒ विष्ण॑वे त्वा। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः ॥४२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अति॑। अ॒न्यान्। अगा॑म्। उप॑। अ॒गा॒म्। अ॒र्वाक्। त्वा॒। परे॑भ्यः। अवि॑दम्। प॒रः॒। अव॑रेभ्यः। तम्। त्वा॒। जु॒षा॒म॒हे॒। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। दे॒व॒य॒ज्याया॒ इति॑ देवऽय॒ज्यायै॑। दे॒वाः। त्वा॒। दे॒व॒य॒ज्याया इति देवऽय॒ज्यायै॑। जु॒ष॒न्ता॒म्। विष्ण॑वे। त्वा॒। ओष॑धे। त्रा॑यस्व। स्वधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥४२॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:42


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को उक्त व्यवहारों से विरुद्ध मनुष्य न सेवने चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पते) सब बूटियों के रखनेवाले (देव) विद्वान् जन ! जैसे तू (अन्यान्) विद्वानों के विरोधी मूर्ख जनों को छोड़ के (अन्यान्) मूर्खों के विरोधी विद्वानों के समीप जाता है, वैसे मैं भी विद्वानों के विरोधियों को छोड़ (उप) समीप (अगाम्) जाऊँ। जो तू (परेभ्यः) उत्तमों से (परः) उत्तम और (अवरेभ्यः) छोटों से (अर्वाक्) छोटे हों (तम्) उन्हें मैं (अविदम्) पाऊँ। जैसे (देवाः) विद्वान् लोग (देवयज्यायै) उत्तम गुण देने के लिये (त्वा) तुझ को चाहते हैं, वैसे हम लोग भी (त्वा) तुझे (जुषामहे) चाहें और हम लोग (देवयज्यायै) अच्छे-अच्छे गुणों का संग होने के लिये (त्वा) तुझे चाहते हैं, वैसे और भी ये लोग चाहें। जैसे ओषधियों का समूह (विष्णवे) यज्ञ के लिये सिद्ध होकर सब की रक्षा करता है, वैसे हे रोगों को दूर करने और (स्वधिते) दुःखों का विनाश करनेवाले विद्वान् जन ! हम लोग (त्वा) तुझे यज्ञ के लिये चाहते हैं। श्रेष्ठ विद्वान् जन ! जैसे मैं इस यज्ञ का विनाश करना नहीं चाहता, वैसे तू भी (एनम्) इस यज्ञ को (मा) मत (हिंसीः) बिगाड़ ॥४२॥
भावार्थभाषाः - यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि नीच व्यवहार और नीच पुरुषों को छोड़ के अच्छे-अच्छे व्यवहार तथा उत्तम विद्वानों को नित्य चाहें और उत्तमों से उत्तम तथा न्यूनों से न्यून शिक्षा का ग्रहण करें। यज्ञ और यज्ञ के पदार्थों का तिरस्कार कभी न करें तथा सब को चाहिये कि एक-दूसरे के मेल से सुखी हों ॥४२॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः पूर्वोक्तेभ्यो विरुद्धा मनुष्या न सेवनीया इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अति) अत्यन्ते (अन्यान्) पूर्वोक्तभिन्नानविदुषः (अगाम्) प्राप्नुयाम् (न) निषेधे (अन्यान्) अविदुषो विरुद्धान् विदुषः (उप) सामीप्ये (अगाम्) प्राप्नुयाम् (अर्वाक्) अवरः (त्वा) त्वम् (परेभ्यः) उत्तमेभ्यः (अविदम्) लभेय (परः) उत्कृष्टः (अवरेभ्यः) अनुत्कृष्टेभ्यः (तम्) अनु (त्वा) त्वाम् (जुषामहे) प्रीणीयाम (देव) कमनीय (वनस्पते) वनानां रक्षक (देवयज्यायै) यथा दिव्यानां संगतये तथा (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (देवयज्यायै) यथोत्तमगुणदानाय तथा (जुषन्ताम्) सेवन्ताम् (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम् (औषधे) यथा सोमाद्योषधिगणस्त्रायते तथा (त्रायस्व) रक्ष (स्वधिते) दुःखविच्छेदक (मा) निषेधे (एनम्) ओषधिगणं परं पुरुषं वा (हिंसीः) विनाशयेः। अयं मन्त्रः (शत०३.६.४.५-१०) व्याख्यातः ॥४२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वनस्पते देव विद्वन् ! यथा त्वमन्यानतीत्यान्यानुपागच्छसि, तथाहमन्यान् नागामन्यानुपागाम्। यस्त्वं परेभ्यः परोऽस्यवरेभ्योऽर्वाक् च, तं त्वामविदम्, यथा देवा देवयज्यायै त्वा त्वां जुषन्ते, तथा त्वा त्वां वयं जुषामहे। यथा वयं देवयज्यायै त्वां जुषामहे, तथैते सर्वे तं त्वां जुषन्ताम्। यथौषधिगणो विष्णवे संभूय सर्वान् त्रायते, तथा हे ओषधे ! सर्वरोगनिवारक स्वधिते दुःखविच्छेदक विद्वन् ! त्वा त्वां विष्णवे यज्ञाय वयं जुषामहे। हे देव विद्वन् ! यथाऽहमिमं यज्ञं न हिंसामि तथैनं त्वामपि मा हिंसीः ॥४२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नीचव्यवहारान् नीचपुरुषांश्च त्यक्त्वोत्तमा व्यवहारा उत्तमाः पुरुषाश्च प्रतिदिनमेषितव्याः। उत्तमेभ्य उत्तमशिक्षाऽवरेभ्योऽवरा च ग्राह्या यज्ञो यज्ञसामग्री च कदाचिन्न हिंसनीया, सर्वैः परस्परं सुखेन भवितव्यम् ॥४२॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी नीच व्यवहार व नीच माणसांची संगत सोडावी. चांगला व्यवहार करावा. विद्वानांची संगत धरण्याची इच्छा करावी. ज्यांच्याजवळ जे जे उत्तम व न्यून शिक्षण घेण्याजोगे असेल ते ते ग्रहण करावे. यज्ञ व यज्ञीय पदार्थांचा कधीच तिरस्कार करू नये. परस्पर मिळून मिसळून राहावे व सुखी व्हावे.