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उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑ ॥४१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥४१॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:41


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे सब पदार्थों में व्याप्त होनेवाला पवन चलता है, वैसे हे विद्या गुणों में व्याप्त होनेवाले विद्वन् ! (उरु) अत्यन्त विस्तारयुक्त (क्षयाय) विद्योन्नति के लिये (विक्रमस्व) अपनी विद्या के अङ्गों से परिपूर्ण हो और (नः) हम लोगों को सुखी (कृधि) कर। जैसे जल का निमित्त बिजुली है, वैसे हे पदार्थ ग्रहण करनेवाले विद्वन् ! बिजुली के समान (घृतम्) जल (पिब) पी और जैसे मैं यज्ञपति को दुःख से पार करता हूँ, वैसे तू भी (स्वाहा) अच्छे प्रकार हवन आदि कर्म्मों को सेवन करके (प्रप्रतिर) दुःखों से अच्छे प्रकार पार हो ॥४१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन सब को सुख देता हुआ सब के रहने का स्थान हो रहा है, वैसे ही विद्वान् को होना चाहिये ॥४१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उरु) बहु (विष्णो) यथा व्यापनशीलो वायुर्विक्रमते तथा तत्संबुद्धौ (विक्रमस्व) पादैः विद्याङ्गैः सम्पद्यस्व (उरु) विस्तीर्णे (क्षयाय) विज्ञानोन्नतये (नः) अस्मान् (कृधि) कुर्य्याः (घृतम्) उदकम् (घृतयोने) यथा जलनिमित्ता विद्युद्वर्त्तते तथा तत्सम्बुद्धौ (पिब) (प्रप्र) प्रकृष्टमिव (यज्ञपतिम्) यथाऽहं यज्ञपतिं तथा त्वम् (तिर) दुःखं प्लवस्व (स्वाहा) सुहुतं हविः। अयं मन्त्रः (शत०३.६.४.२-३) व्याख्यातः ॥४१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विष्णो ! त्वं उरु क्षयाय विक्रमस्व नोऽस्मान् सुखिनः कृधि। हे घृतयोने ! यथा विद्युत् तथा घृतं पिब, यथाऽहं यज्ञपतिं संतरामि तथा स्वाहानुतिष्ठन् प्रप्रतिर ॥४१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पवनः सर्वान् सुखयन् सर्वाधिष्ठानोऽस्ति, तथैव विदुषा सम्पत्तव्यम् ॥४१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू सर्वांना सुख देतो व सर्व ठिकाणी विद्यमान असतो तसे विद्वानांनी वागावे.