वांछित मन्त्र चुनें

र॒क्षो॒हणो॑ वो बलग॒हनः॒ प्रोक्षा॑मि वैष्ण॒वान् र॑क्षो॒हणो॑ वो बलग॒हनोऽव॑नयामि वैष्ण॒वान् र॑क्षो॒हणो॑ वो बलग॒हनोऽव॑स्तृणामि वैष्ण॒वान् र॑क्षो॒हणौ॑ वां बलग॒हना॒ऽउप॑दधामि वैष्ण॒वी र॑क्षो॒हणौ॑ वां बलग॒हनौ॒ पर्यू॑हामि वैष्ण॒वी वै॑ष्ण॒वम॑सि वैष्ण॒वा स्थ॑ ॥२५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

र॒क्षो॒हणः॑। र॒क्षो॒हन॒ इति॑ रक्षः॒ऽहनः॑। वः॒। ब॒ल॒ग॒हन॒ इति॑ बलग॒ऽहनः॑। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वै॒ष्ण॒वान्। र॒क्षो॒हणः॑। र॒क्षो॒हन॒ इति॑ रक्षः॒ऽहनः॑। वः॒। ब॒ल॒ग॒हन॒ इति॑ बलग॒ऽहनः॑। अव॑। न॒या॒मि॒। वै॒ष्ण॒वान्। र॒क्षो॒हणः॑। र॒क्षो॒हन॒ इति॑ रक्षः॒ऽहनः॑। वः॒। ब॒ल॒ग॒हन॒ इति॑ बलग॒ऽहनः॑। अव॑। स्तृ॒णा॒मि॒। वै॒ष्ण॒वान्। र॒क्षो॒हणौ॑। र॒क्षो॒हना॒विति॑ रक्षः॒ऽहनौ॑। वा॒म्। ब॒ल॒ग॒हना॒विति॑ बलग॒ऽहनौ॑। उप॑। द॒धा॒मि॒। वै॒ष्ण॒वीऽइति॑ वैष्ण॒वी। र॒क्षो॒हणौ॑। र॒क्षो॒हना॒विति॑ रक्षः॒ऽहनौ॑। वा॒म्। ब॒ल॒ग॒हना॒विति॑ बलग॒ऽहनौ॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। वैष्ण॒वीऽइति॑ वैष्ण॒वी। वै॒ष्ण॒वम्। अ॒सि॒। वै॒ष्ण॒वाः। स्थः॒। ॥२५॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:25


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यजमान सभा आदि के अध्यक्ष यज्ञानुष्ठान करनेवाले मनुष्यों को यज्ञ सामग्री का ग्रहण करावें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष आदि मनुष्यो ! जैसे तुम (रक्षोहणः) दुःखों का नाश करनेवाले हो, वैसे शत्रुओं के बल को अस्तव्यस्त करने हारा मैं (वैष्णवान्) यज्ञ देवतावाले (वः) आप लोगों का सत्कार कर युद्ध में शस्त्रों से (प्रोक्षामि) इन घमण्डी मनुष्यों को शुद्ध करूँ। जैसे आप (रक्षोहणः) अधर्मात्मा दुष्ट दस्युओं को मारनेवाले हैं, वैसे (बलगहनः) शत्रुसेना की थाह लेनेवाला मैं (वैष्णवान्) यज्ञसम्बन्धी (वः) तुम को सुखों से मान्य कर दुष्टों को (अवनयामि) दूर करता हूँ। जैसे (बलगहनः) अपनी सेना को व्यूहों की शिक्षा से विलोडन करनेवाला मैं (रक्षोहणः) शत्रुओं को मारने वा (वैष्णवान्) यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले (वः) तुम को (अवस्तृणामि) सुख से आच्छादित करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। जैसे (रक्षोहणौ) राक्षसों के मारने वा (बलगहनौ) बलों को विलोडन करनेवाले (वाम्) यज्ञपति वा यज्ञ करानेवाले विद्वान् का धारण करते हो, वैसे मैं भी (उपदधामि) धारण करता हूँ। जैसे (रक्षोहणौ) राक्षसों के मारने (बलगहनौ) बलों को विलोडनेवाले (वाम्) प्रजा सभाध्यक्ष आप (वैष्णवी) सब विद्याओं में व्यापक विद्वानों की क्रिया वा (वैष्णवम्) जो विष्णुसम्बन्धी ज्ञान है, इन सब को तर्क से जानते हैं, वैसे मैं भी (पर्यूहामि) तर्क से अच्छे प्रकार जानूँ और जैसे आप सब लोग (वैष्णवाः) व्यापक परमेश्वर की उपासना करनेवाले (स्थ) हैं, वैसा मैं भी होऊँ ॥२५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को परमेश्वर की उपासनायुक्त व्यवहार से शरीर और आत्मा के बल को पूर्ण कर के यज्ञ से प्रजा की पालना और शत्रुओं को जीतकर सब भूमि के राज्य की पालना करनी चाहिये ॥२५॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यजमानः सभाद्यध्यक्षादयो यज्ञानुष्ठातॄन् मनुष्यान् यज्ञसामग्रीं ग्राहयेयुरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(रक्षोहणः) यथा यूयं ये रक्षांसि दुःखानि हथ तथा (वः) युष्मानेतांश्च (बलगहनः) यथा यो बलानि गाहते तथा भूतोऽहम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (उक्षामि) सिञ्चामि (वैष्णवान्) विष्णुर्यज्ञो देवता येषां तान् (रक्षोहणः) यथा यूयं रक्षांसि दुष्टान् दस्य्वादीन् हथ तथा तान् (वः) युष्मानेतान् वा (बलगहनः) यथा यो बलानि शत्रुसैन्यानि गाहते तथाऽहम् (अव) विनिग्रहार्थे (नयामि) प्राप्नोमि प्रापयामि वा (वैष्णवान्) विष्णोर्यज्ञस्येमान् (रक्षोहणः) यथा यूयं रक्षांसि शत्रून् हथ तथाऽहं तान् (वः) युष्मानेतान् वीरान् वा (बलगहनः) यथाऽहं बलानि स्वसैन्यानि गाहे तथा व्यूहशिक्षया विलोडयत (अव) विनिग्रहे (स्तृणामि) आच्छादयामि (वैष्णवान्) यज्ञानुष्ठातॄन् (रक्षोहणौ) यथा रक्षसां हन्तारौ प्रजासभाद्यध्यक्षौ तथाऽहम् (वाम्) उभौ (बलगहनौ) यथा युवां बलानि गाहेथे तथाऽहम् (उप) सामीप्ये (दधामि) धरामि (वैष्णवी) विष्णोरियं क्रिया (रक्षोहणौ) यथा रक्षसां शत्रूणां हन्तारौ भवथस्तथाऽहम् (वाम्) उभौ (बलगहनौ) यथा युवां बलानि गाहेथे तथाऽहम् (परि) सर्वतः (ऊहामि) तर्केण निश्चिनोमि (वैष्णवी) विष्णोः समग्रविद्याव्यापकस्येयं रीतिस्ताम् (वैष्णवम्) विष्णोरिदं विज्ञानम् (असि) अस्ति (वैष्णवाः) विष्णोर्व्यापकस्येम उपासकाः (स्थ) भवत। अयं मन्त्रः (शत०३.५.४.१८-२४) व्याख्यातः ॥२५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्षादयो मनुष्या ! यूयं यथा रक्षोहणः स्थ तथा बलगहनोऽहं वो युष्मान् सत्कृत्यैतान् दुष्टान् युद्धे शस्त्रैः प्रोक्षामि। यथा रक्षोहणो यूयं नो दुःखानि हथ, तथा बलगहनोऽहं वो युष्मान् सुखैः संमान्यैतानवनयामि। यथा रक्षोहणो वैष्णवान् वो युष्मानेतांश्चावस्तृणीथ, तथा बलगहनोऽहमेवैतानवस्तृणामि। यथा रक्षोहणौ बलगहनौ यज्ञस्वामिसम्पादकौ वामुपधत्तस्तथैवाहमेतानुपदधामि। यथा रक्षौहणौ बलगहनौ वां या वैष्णवी क्रियास्ति तया पर्यूहतस्तथैवाहमेतां पर्यूहामि यद्वैष्णवं ज्ञानं यूयं सर्वत ऊहथ, तदहमपि पर्यूहामि, यूयं वैष्णवा स्थ तथा वयमपि भवेम ॥२५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः परमेश्वरोपासनायुक्तव्यवहाराभ्यां पूर्णं शरीरात्मबलं सम्पाद्य यज्ञेन प्रजापालनं शत्रून् विजित्य सार्वभौमराज्यं च प्रशासनीयम् ॥२५॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार व उपमालंकार आहेत. सभाध्यक्ष (राजा) इत्यादी माणसांनी परमेश्वराची उपासना करून शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवावे व यज्ञ करून प्रजेचे पालन करावे आणि शत्रूंना जिंकून सर्व पृथ्वीवरील राज्याचे पालन करावे.