वांछित मन्त्र चुनें

अ॒ग्नेर्ज॒नित्र॑मसि॒ वृष॑णौ स्थऽउ॒र्वश्य॑स्या॒युर॑सि पुरू॒रवा॑ऽअसि। गा॒य॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि ॥२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्नेः। ज॒नित्र॑म्। अ॒सि॒। वृष॑णौ। स्थः॒। उ॒र्वशी॑। अ॒सि॒। आ॒युः। अ॒सि॒। पु॒रू॒रवाः॑। अ॒सि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒ ॥२॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जैसे मैं जो (अग्नेः) आग्नेय अस्त्रादि की सिद्धि करने हारे अग्नि के (जनित्रम्) उत्पन्न करनेवाला हवि (असि) है, (वृषणौ) जो वर्षा करानेवाले सूर्य्य और वायु (स्थः) हैं, जो (उर्वशी) बहुत सुखों के प्राप्त करानेवाली क्रिया (असि) है, जो (आयुः) जीवन (असि) है, जो (पुरूरवाः) बहुत शास्त्रों के उपदेश करने का निमित्त (असि) है, (त्वा) उस अग्नि (गायत्रेण) गायत्री (छन्दसा) आनन्दकारक स्वच्छन्द क्रिया से (मन्थामि) विलोडन करता हूँ (त्वा) उस सोम आदि ओषधीसमूह (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् (छन्दसा) छन्द से (मन्थामि) विलोडन करता हूँ (त्वा) और उस शत्रु दुःखसमूह को (जागतेन) जगती (छन्दसा) छन्द से (मन्थामि) ताड़न करके निवारण करता हूँ, वैसे ही तुम भी किया करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को योग्य है कि इस प्रकार की रीति से प्रतिपादन वा सेवन किये हुए यज्ञ से दूसरे मनुष्यों के लिये परोपकार करें ॥२॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स यज्ञः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्नेः) आग्नेयास्त्रादेः सिद्धिकरस्य पावकस्य (जनित्रम्) जनकं हविः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (वृषणौ) वर्षयितारौ (स्थः) भवतः (उर्वशी) ययोरूणि बहूनि सुखान्यश्नुवते सा यज्ञक्रिया। उर्वशीति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) तस्मिन्नुपपदे अशूङ् धातोः सम्पदादिभ्यः क्विप्। [अष्टा०वा०३.३.९४] ततः शार्ङ्रवाद्यन्तर्गन्तत्वान्ङीन्। (असि) भवति (आयुः) एति जीवनं येन तत् (असि) वर्त्तते (पुरूरवाः) पुरूणि बहूनि शास्त्राण्युपदिशति येनाध्ययनाध्यापनेन यज्ञेन सः। पुरूरवा इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) पुरूरवाः। (उणा०४.२३२) अयमनेन पुरूपपदाद् रुधातोरसिप्रत्ययान्तेन निपातितः। (असि) भवति (गायत्रेण) गायत्री प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तमग्निम् (छन्दसा) चन्दन्त्यानन्दन्ति येन तेन (मन्थामि) विलोडनादिक्रियया निष्पादयामि (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तं सोमाद्योषधीसमूहम् (छन्दसा) सुखकारकेण (मन्थामि) (जागतेन) जगती प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तं सामग्रीसमूहं शत्रुदुःखसमूहं वा (छन्दसा) सुखसम्पादकेन (मन्थामि) विलोड्य निवारयामि। अयं मन्त्रः (शत०३.४.२०-२३) व्याख्यातः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथाऽहं यदग्नेर्जनित्रमसि भवति, यौ वृषणौ स्थो भवतो या उर्वश्यसि भवति, यः पुरूरवाः असि भवति, त्वा तं गायत्रेण छन्दसा मन्थामि, त्वा तं त्रैष्टुभेन छन्दसा मन्थामि, त्वा तं जागतेन छन्दसा मन्थामि तथैव यूयमप्येतत्सर्वमनुष्ठायैतानि निष्पादयत ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवं रीत्योक्तेन यज्ञेन परोपकारकरणं सम्पादनीयम् ॥२॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी या प्रकारे केलेल्या यज्ञाने दुसऱ्या माणसांवर उपकार करावा.