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अ॒सु॒र्य्या नाम॒ लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः। ताँस्ते प्रेत्यापि॑ गच्छन्ति॒ ये के चा॑त्म॒हनो॒ जनाः॑ ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒सु॒र्य्याः᳕। नाम॑। ते। लो॒काः। अ॒न्धेन॑। तम॑सा। आवृ॑ता॒ इत्याऽवृ॑ताः ॥ तान्। ते। प्रेत्येति॒ प्रऽइ॑त्य। अपि॑। ग॒च्छ॒न्ति॒। ये। के। च॒। आ॒त्म॒हन॒ इत्या॑त्म॒ऽहनः॑। जनाः॑ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब आत्मा के हननकर्त्ता अर्थात् आत्मा को भूले हुए जन कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (लोकाः) देखनेवाले लोग (अन्धेन) अन्धकाररूप (तमसा) ज्ञान का आवरण करनेहारे अज्ञान से (आवृताः) सब ओर से ढँपे हुए (च) और (ये) जो (के) कोई (आत्महनः) आत्मा के विरुद्व आचरण करनेहारे (जनाः) मनुष्य हैं (ते) वे (असुर्य्याः) अपने प्राणपोषण में तत्पर अविद्यादि दोषयुक्त लोगों के सम्बन्धी उनके पापकर्म करनेवाले (नाम) प्रसिद्ध में होते हैं (ते) वे (प्रेत्य) मरने के पीछे (अपि) और जीते हुए भी (तान्) उन दुःख और अज्ञानरूप अन्धकार से युक्त भोगों को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - वे ही मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस तथा पिशाच आदि हैं, जो आत्मा में और जानते वाणी से और बोलते और करते कुछ ही हैं, वे कभी अविद्यारूप दुःखसागर से पार हो आनन्द को नहीं प्राप्त हो सकते, और जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से निष्कपट एकसा आचरण करते हैं, वे ही देव, आर्य्य, सौभाग्यवान् सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक और परलोक में अतुल सुख भोगते हैं ॥३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथात्महन्तारो जनाः कीदृशा इत्याह ॥

अन्वय:

(असुर्य्याः) असुराणां प्राणपोषणतत्पराणामविद्यादियुक्तानामिमे सम्बन्धिनस्तत्सदृशः पापकर्माणः (नाम) प्रसिद्धौ (ते) (लोकाः) लोकन्ते पश्यन्ति ते जनाः (अन्धेन) अन्धकाररूपेण (तमसा) अत्यावरकेण (आवृताः) समन्ताद्युक्ता आच्छादिताः (तान्) दुःखान्धकारावृतान् भोगान् (ते) (प्रेत्य) मरणं प्राप्य (अपि) जीवन्तोऽपि (गच्छन्ति) प्राप्नुवन्ति (ये) (के) (च) (आत्महनः) य आत्मानं घ्नन्ति तद्विरुद्धमाचरन्ति ते (जनाः) मनुष्याः ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता ये के चात्महनो जनाः सन्ति, तेऽसुर्य्या नाम ते प्रेत्यापि तान् गच्छन्ति ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - त एव असुरा दैत्या राक्षसाः पिशाचा दुष्टा मनुष्या य आत्मन्यन्यद् वाच्यन्यत् कर्मण्यन्यदाचरन्ति, ते न कदाचिदविद्यादुःखसागरादुत्तीर्याऽऽनन्दं प्राप्तुं शक्नुवन्ति। ये च यदात्मना तन्मनसा यन्मनसा तद्वाचा यद्वाचा तत्कर्मणाऽनुतिष्ठन्ति, त एव देवा आर्य्या सौभाग्यवन्तोऽखिलं जगत् पवित्रयन्त इमामुत्रातुलं सुखमश्नुवते ॥३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विचार एक, वाणी दुसरी व कर्म तिसरेच करतात अशी माणसेच असूर, दैत्य, राक्षस व पिशाच्च असतात व ती माणसे अविद्यारूपी दुःख सागरातून बाहेर पडून आनंद प्राप्त करू शकत नाहीत. जी माणसे आत्मा, मन, वाणी व कर्म यांनी निष्कपट व एकसारखे आचरण करतात तीच देव, श्रेष्ठ (आर्य) भाग्यवान असतात व सर्व जगाला पवित्र करतात आणि इहलोक व परलोकांचे अतुल सुख भोगतात.