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वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथे॒दं भस्मा॑न्त॒ꣳ शरी॑रम्। ओ३म् क्रतो॑ स्मर। क्लि॒बे स्म॑र। कृ॒तꣳ स्म॑र ॥१५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वा॒युः। अनि॑लम्। अ॒मृत॑म्। अथ॑। इ॒दम्। भस्मा॑न्त॒मिति॒ भस्म॑ऽअन्तम्। शरी॑रम् ॥ ओ३म्। क्रतो॒ इति॒ क्रतो॑। स्म॒र॒। क्लि॒बे। स्म॒र॒। कृ॒तम्। स्म॒र॒ ॥१५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब देहान्त के समय क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (क्रतो) कर्म करनेवाले जीव ! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नामवाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर (क्लिबे) अपने सामर्थ्य के लिये परमात्मा और अपने स्वरूप का (स्मर) स्मरण कर (कृतम्) अपने किये का (स्मर) स्मरण कर। इस संस्कार का (वायुः) धनञ्जयादिरूप वायु (अनिलम्) कारणरूप वायु को, कारणरूप वायु (अमृतम्) अविनाशी कारण को धारण करता (अथ) इसके अनन्तर (इदम्) यह (शरीरम्) नष्ट होनेवाला सुखादि का आश्रय शरीर (भस्मान्तम्) अन्त में भस्म होनेवाला होता है, ऐसा जानो ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जैसी मृत्यु समय में चित्त की वृत्ति होती है और शरीर से आत्मा का पृथक् होना होता है, वैसे ही इस समय भी जानें। इस शरीर की जलाने पर्य्यन्त क्रिया करें। जलाने के पश्चात् शरीर का कोई संस्कार न करें। वर्त्तमान समय में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उपासना और सामर्थ्य को बढ़ाया करें। किया हुआ कर्म निष्फल नहीं होता, ऐसा मान कर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति किया करें ॥१५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ देहान्तसमये किं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

(वायुः) धनञ्जयादिरूपः (अनिलम्) कारणरूपं वायुम् (अमृतम्) नाशरहितं कारणम् (अथ) (इदम्) (भस्मान्तम्) भस्म अन्ते यस्य तत् (शरीरम्) यच्छीर्य्यते हिंस्यते तदाश्रयम् (ओ३म्) एतन्नामवाच्यमीश्वरम् (क्रतो) यः करोति जीवस्तत्सम्बुद्धौ (स्मर) पर्य्यालोचय (क्लिबे) स्वसामर्थ्याय (स्मर) (कृतम्) यदनुष्ठितम् (स्मर) तत् ॥१५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे क्रतो ! त्वं शरीरत्यागसमये (ओ३म्) स्मर क्लिबे परमात्मानं स्वस्वरूपं च स्मर कृतं स्मर। अत्रस्थो वायुरनिलमनिलोऽमृतं धरति। अथेदं शरीरं भस्मान्तं भवतीति विजानीत ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथा मृत्युसमये चित्तवृत्तिर्जायते शरीरादात्मनः पृथग्भावश्च भवति, तथैवेदानीमपि विज्ञेयम्। एतच्छरीरस्य भस्मान्ता क्रिया कार्य्या नातो दहनात् परः कश्चित् संस्कारः कर्त्तव्यो वर्त्तमानसमय एकस्य परमेश्वरस्यैवाज्ञापालनमुपासनं स्वसामर्थ्यवर्द्धनञ्चैव कार्य्यम्। कृतं कर्म विफलं न भवतीति मत्वा धर्मे रुचिरधर्मेऽप्रीतिश्च कर्त्तव्या ॥१५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - मृत्यूच्या वेळी माणसाची जशी चित्तवृत्ती असेल व शरीरापासून आत्मा वेगळा व्हावयाचा असतो. त्यावेळची स्थिती माणसांनी जाणावी मृत्यूनंतर शरीराची दहनक्रिया करावी. दहन केल्यानंतर शरीराचा कोणताही संस्कार करू नये. या जन्मात एका परमेश्वराची आज्ञा पालन करून व उपासना करून आपले सामर्थ्य वाढवावे. केलेले कर्म कधीच निष्फळ होत नाही. असे जाणून धर्मामध्ये रूची व अधर्मामध्ये अरूची असावी.