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वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह। अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒मृत॑मश्नुते ॥१४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒द्याम्। च॒। अवि॑द्याम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ अवि॑द्यया। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। वि॒द्यया॑। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो विद्वान् (विद्याम्) पूर्वोक्त विद्या (च) और उसके सम्बन्धी साधन-उपसाधनों (अविद्याम्) पूर्व कही अविद्या (च) और इसके उपयोगी साधनसमूह को और (तत्) उस ध्यानगम्य मर्म (उभयम्) इन दोनों को (सह) साथ ही (वेद) जानता है, वह (अविद्यया) शरीरादि जड़ पदार्थ समूह से किये पुरुषार्थ से (मृत्युम्) मरणदुःख के भय को (तीर्त्वा) उल्लङ्घ कर (विद्यया) आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोग में जो धर्म उससे उत्पन्न हुए यथार्थ दर्शनरूप विद्या से (अमृतम्) नाशरहित अपने स्वरूप वा परमात्मा को (अश्नुते) प्राप्त होता है ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़ परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं। जो जड़प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़, न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है ॥१४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(विद्याम्) पूर्वोक्ताम् (च) तत्सम्बन्धिसाधनोपसाधनम् (अविद्याम्) प्रतिपादितपूर्वाम् (च) एतदुपयोगिसाधनकलापम् (यः) (तत्) (वेद) विजानीत (उभयम्) (सह) (अविद्यया) शरीरादिजडेन पदार्थसमूहेन कृतेन पुरुषार्थेन (मृत्युम्) मरणदुःखभयम् (तीर्त्वा) उल्लङ्घ्य (विद्यया) आत्मशुद्धान्तःकरणसंयोगधर्मजनितेन यथार्थदर्शनेन (अमृतम्) नाशरहितं स्वस्वरूपं परमात्मानं वा (अश्नुते) ॥१४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यो विद्वान् विद्यां चाऽविद्यां च तदुभयं सह वेद सोऽविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्याऽविद्ये स्वरूपतो विज्ञायऽनयोर्जडचेतनौ साधकौ वर्त्तेते इति निश्चित्य सर्वं शरीरादिजडं चेतनमात्मानं च धर्मार्थकाममोक्षसिद्धये सहैव संप्रयुञ्जते, ते लौकिकं दुःखं विहाय पारमार्थिकं सुखं प्राप्नुवन्ति। यदि जडं प्रकृत्यादिकारणं शरीरादिकार्यं वा न स्यात्, तर्हि परमेश्वरो जगदुत्पत्तिं जीवः कर्मोपासने ज्ञानं च कर्त्तुं कथं शक्नुयात्, तस्मान्न केवलेन जडेन न च केवलेन चेतनेनाथवा न केवलेन कर्मणा न केवलेन ज्ञानेन च कश्चिदपि धर्मादिसिद्धिं कर्त्तुं समर्थो भवति ॥१४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्या व अविद्या यांचे स्वरूप जाणून जड व चेतनाचा निश्चय करून शरीर वगैरे सर्व जड पदार्थ आणि चेतन आत्मा यांना धर्म, अर्थ, काम मोक्षाच्या सिद्धीसाठी बरोबरच प्रयोगात आणतात. ते लौकिक दुःखांपासून दूर होतात आणि परमार्थाचे सुख भोगतात. जर जड प्रकृती इत्यादी कारण किंवा शरीरादी कार्य नसेल तर परमेश्वर जगाची उत्पत्ती करण्यास व जीव ज्ञान, कर्म, उपासना करण्यास समर्थ कसे होऊ शकतील? म्हणून कोणीही केवळ जडाने किंवा चेतनाने अथवा केवळ ज्ञानाने किंवा केवळ कर्माने वगैरे गोष्टी साध्य करू शकत नाहीत.