वांछित मन्त्र चुनें

अ॒न्यदे॒वाहुर्वि॒द्याया॑ऽअ॒न्यदा॑हु॒रवि॑द्यायाः। इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥१३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। वि॒द्यायाः॑। अ॒न्यत्। आ॒हुः॒। अवि॑द्यायाः ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒रे इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:13


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब जड़-चेतन का भेद कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (ये) जो विद्वान् लोग (नः) हमारे लिये (विचचक्षिरे) व्याख्यापूर्वक कहते थे (विद्यायाः) पूर्वोक्त विद्या का (अन्यत्) अन्य ही कार्य वा फल (आहुः) कहते थे (अविद्यायाः) पूर्व मन्त्र से प्रतिपादन की अविद्या का (अन्यत्, एव) अन्य फल (आहुः) कहते हैं (इति) इस प्रकार उन (धीराणाम्) आत्मज्ञानी विद्वानों से (तत्) उस वचन को हम लोग (शुश्रुम) सुनते थे, ऐसा जानो ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानादि गुणयुक्त चेतन से जो उपयोग होने योग्य है, वह अज्ञानयुक्त जड़ से कदापि नहीं और जो जड़ से प्रयोजन सिद्ध होता है, वह चेतन से नहीं। सब मनुष्यों को विद्वानों के सङ्ग, योग, विज्ञान और धर्माचरण से इन दोनों का विवेक करके दोनों से उपयोग लेना चाहिये ॥१३ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जडचेतनयोर्विभागमाह ॥

अन्वय:

(अन्यत्) अन्यदेव कार्यं फलं वा (एव) (आहुः) कथयन्ति (विद्यायाः) पूर्वोक्तायाः (अन्यत्) (आहुः) (अविद्यायाः) पूर्वमन्त्रेण प्रतिपादितायाः (इति) (शुश्रुम) श्रुतवन्तः (धीराणाम्) आत्मज्ञानां विदुषां सकाशात् (ये) (नः) अस्मभ्यम् (तत्) विद्याऽविद्याजं फलं द्वयोः स्वरूपं (विचचक्षिरे) व्याख्यातवन्तः ॥१३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ये विद्वांसो नो विचचक्षिरे विद्याया अन्यदाहुरविद्याया अन्यदेवाहुरिति तेषां धीराणां तद्वचो वयं विजानीत ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानादिगुणयुक्तस्य चेतनस्य सकाशाद्य उपयोगो भवितुं योग्यो न स अज्ञानयुक्तस्य जडस्य सकाशात् यच्च जडात् प्रयोजनं सिध्यति न तच्चेतनादिति सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गेन विज्ञानेन योगेन धर्माचरणेन चानयोर्विवेकं कृत्वोभयोरुपयोगः कर्त्तव्यः ॥१३ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अनादी गुणयुक्त चेतनाकडून जो व्यवहार होतो तो अज्ञानयुक्त जडाकडून कधीही होत नाही व जडाने जे प्रयोजन सिद्ध होते ते चेतनाने होत नाही. म्हणून सर्व माणसांनी विद्वानांची संगती, योगविज्ञान व धर्माचरणाने या दोन्हींचा (विद्या व अविद्या) विवेक करून दोन्ही गोष्टींचा उपयोग करून घ्यावा.