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अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते। ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॑ वि॒द्याया॑ र॒ताः ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अवि॑द्याम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। वि॒द्याया॑म्। र॒ताः ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्या-अविद्या की उपासना का फल कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो मनुष्य (अविद्याम्) अनित्य में नित्य, अशुद्ध में शुद्ध, दुःख में सुख और अनात्मा शरीरादि में आत्मबुद्धिरूप अविद्या उसकी अर्थात् ज्ञानादि गुणरहित कारणरूप परमेश्वर से भिन्न जड़ वस्तु की (उपासते) उपासना करते हैं, वे (अन्धम्, तमः) दृष्टि के रोकनेवाले अन्धकार और अत्यन्त अज्ञान को (प्र, विशन्ति) प्राप्त होते हैं और (ये) जो अपने आत्मा को पण्डित माननेवाले (विद्यायाम्) शब्द, अर्थ और इनके सम्बन्ध के जानने मात्र अवैदिक आचरण में (रताः) रमण करते (ते) वे (उ) भी (ततः) उससे (भूय इव) अधिकतर (तमः) अज्ञानरूपी अन्धकार में प्रवेश करते हैं ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो-जो चेतन, ज्ञानादिगुणयुक्त वस्तु है वह जाननेवाला, जो अविद्यारूप है वह जानने योग्य है और जो चेतन ब्रह्म तथा विद्वान् का आत्मा है वह उपासना के योग्य है, जो इससे भिन्न है, वह उपास्य नहीं है, किन्तु उपकार लेने योग्य है। जो मनुष्य अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक क्लेशों से युक्त हैं, परमेश्वर को छोड़ इससे भिन्न जड़वस्तु की उपासना कर महान् दुःखसागर से डूबते हैं और जो शब्द अर्थ का अन्वयमात्र संस्कृत पढ़कर सत्यभाषण पक्षपातरहित न्याय का आचरणरूप धर्म नहीं करते, अभिमान में आरूढ़ हुए विद्या का तिरस्कार कर अविद्या को ही मानते हैं, वे अत्यन्त तमोगुणरूप दुःखसागर में निरन्तर पीडि़त होते हैं ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्याऽविद्योपासनाफलमाह ॥

अन्वय:

(अन्धम्) दृष्ट्यावरकम् (तमः) गाढमज्ञानम् (प्र) (विशन्ति) (ये) (अविद्याम्) अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्येति ज्ञानादिगुणरहितं वस्तु कार्य्यकारणात्मकं जडं परमेश्वराद्भिन्नम् (उपासते) अभ्यस्यन्ति (ततः) (भूय इव) अधिकमिव (ते) (तमः) अज्ञानम् (ये) पण्डितंमन्यमानाः (उ) (विद्यायाम्) शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानमात्रेऽवैदिक आचरणे (रताः) रममाणाः ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये मनुष्या अविद्यामुपासते तेऽन्धन्तमः प्रविशन्ति, ये विद्यायां रतास्त उ ततो भूय इव तमः प्रविशन्ति ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ज्ञानादिगुणयुक्तं वस्तु तज्ज्ञातृ यदविद्यारूपं तज्ज्ञेयं यच्च चेतनं ब्रह्मविद्वदात्मस्वरूपं वा तदुपासनीयं सेवनीयं च यदतो भिन्नं तन्नोपासनीयं किन्तूपकर्त्तव्यम्। ये मनुष्या अविद्याऽस्मिताराग-द्वेषाभिनिवेशैः क्लेशैर्युक्तास्ते परमेश्वरं विहायातो भिन्नं जडं वस्तूपास्य महति दुःखसागरे मज्जन्ति, ये च शब्दार्थान्वयमात्रं संस्कृतमधीत्य सत्यभाषणपक्षपातरहितन्यायाचरणाख्यं धर्मं नाचरन्त्यभिमानारूढाः सन्तो विद्यां तिरस्कृत्याविद्यामेव मन्यन्ते, ते चाऽधिकतमसि दुःखार्णवे सततं पीडिता जायन्ते ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी जी चेतन ज्ञान व गुणयुक्त वस्तू आहे ती ज्ञाता व जी अविद्यारूपी वस्तू असते ती जाणण्यायोग्य असते व जे चेतन ब्रह्म आहे ते उपासना करण्यायोग्य आहे. यापेक्षा जे भिन्न असते ते उपास्य नसून त्याचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. जी माणसे अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश व अभिनिवेश नामक क्लेशांनी युक्त आहेत ती परमेश्वराला सोडून त्यापेक्षा भिन्न जड वस्तूची उपासना करून महान दुःख सागरात बुडतात व जे संस्कृत शब्द अर्थ अन्वय जाणून स्वतःला पंडित मानणारे असून, सत्य भाषण, पक्षापातरहित न्यायाचा आचरणरूपी धर्म स्वीकारीत नाहीत आणि अभिमानी बनून विद्येचा तिरस्कार करून अविद्येलाच मानतात ते अत्यंत तमोगुणरूपी दुःखसागराने निरंतर पीडित होतात.