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उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम् ॥३३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उस्रौ॑। आ। इ॒त॒म्। धू॒र्षा॒हौ॒। धूः॒स॒हा॒विति॑ धूःऽसहौ। यु॒ज्येथा॑म्। अ॒न॒श्रूऽइत्य॑न॒श्रू। अवी॑रहणौ। अवी॑रहनावित्यवी॑रऽहनौ। ब्र॒ह्म॒चोद॑ना॒विति॑ ब्रह्म॒ऽचोद॑नौ। स्व॒स्ति। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥३३॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:33


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्य और विद्वान् कैसे हैं, और उनसे शिल्पविद्या के जाननेवाले क्या करें, सो अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्या और शिल्पक्रिया को प्राप्त होने की इच्छा करनेवाले (ब्रह्मचोदनौ) अन्न और विज्ञान प्राप्ति के हेतु (अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का रक्षण करने (उस्रौ) ज्योतियुक्त और निवास के हेतु (धूर्षाहौ) पृथिवी और धर्म के भार को धारण करनेवाले विद्वान् (आ इतम्) सूर्य्य और वायु को प्राप्त होते वा (युज्येथाम्) युक्त करते और (यजमानस्य) धार्मिक यजमान के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुख से (गच्छतम्) गमन करते हैं, वैसे तुम भी उनको युक्ति से संयुक्त कर के कार्यों को सिद्ध किया करो ॥३३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य और विद्वान् सब पदार्थों को धारण करनेहारे, सहनयुक्त और प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् से यानों में युक्ति से सेवन किये हुए अग्नि और जल सवारियों को चला के सर्वत्र सुखपूर्वक गमन कराते हैं ॥३३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्यविद्वांसौ कथंभूतावेताभ्यां शिल्पविदौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उस्रौ) रश्मिमन्तौ निवासहेतू सूर्य्यवायू। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) गोनामसु च। (निघं०२.११) (आ) समन्तात् (इतम्) प्राप्नुतः (धूर्षाहौ) यौ धुरं पृथिव्याः शरीरस्य ज्ञानानां वा धारणं सहेते तौ (युज्येथाम्) युज्येते युक्तौ कुरुतः (अनश्रू) अव्यापिनौ (अवीरहणौ) वीरहननरहितौ (ब्रह्मचोदनौ) आत्मान्नप्राप्तिप्रेरकौ (स्वस्ति) सुखं सुखेन वा (यजमानस्य) धार्मिकस्य जीवस्य (गृहान्) गृहाणि (गच्छतम्) गमयतः। अयं मन्त्रः (शत०३.३.४.१२) व्याख्यातः ॥३३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथा विद्याशिल्पे चिकीर्षू यौ ब्रह्मचोदनावनश्रू अवीरहणावुस्रौ धूर्षाहौ सूर्य्यविद्वांसौ गावौ वृषवद् यानचालनायैतं प्राप्नुतो युज्येथां युक्तौ कुरुतो यजमानस्य गृहान् स्वस्ति गच्छतं सुखेन गमयतस्तौ यूयं युक्त्या सेवयत ॥३३॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्यविपश्चितौ क्रमेण सर्वं प्रकाश्य धृत्वा सहित्वा युक्त्वा प्राप्य सुखं प्रापयतस्तथैव येन शिल्पविद्यासम्पादकेन यानेषु युक्त्या सेविते अग्निजले सुखेन सर्वत्राभिगमनं कारयतः ॥३३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सूर्य जसा सर्व पदार्थांना प्रकाशित करतो व सुख देतो आणि विद्वान सर्वांना ज्ञानयुक्त बनवून सुखी करतो तसे कुशलतेने अग्नी व जलाचा वापर करणाऱ्या शिल्पविद्या जाणकारांनी तयार केलेल्या यानातून प्रवास करता येतो.