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सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒रारो॑हा॒ग्नेर॒क्ष्णः क॒नीन॑कम्। यत्रैत॑शेभि॒रीय॑से॒ भ्राज॑मानो विप॒श्चिता॑ ॥३२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सूर्य्य॑स्य। चक्षुः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒ग्नेः। अ॒क्ष्णः। क॒नीन॑कम्। यत्र॑। एत॑शेभिः। ईय॑से। भ्राज॑मानः। वि॒प॒श्चितेति॑ विपः॒ऽचिता॑ ॥३२॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! (यत्र) जहाँ आप (एतशेभिः) विज्ञान आदि गुणों से (भ्राजमानः) प्रकाशमान (विपश्चिता) मेधावी विद्वान् से (ईयसे) विज्ञात होते हो वा जहाँ प्राणवायु वा बिजुली (एतशेभिः) वेगादि गुण वा (विपश्चिता) विद्वान् से (भ्राजमानः) प्रकाशित होकर (ईयसे) विज्ञात होते हैं और जहाँ आप प्राण तथा बिजुली (सूर्य्यस्य) सूर्य्य वा बिजुली और (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (अक्ष्णः) देखने के साधन (कनीनकम्) प्रकाश करनेवाले (चक्षुः) नेत्रों को (आरोह) देखने के लिये कराते वा कराती हैं, वहीं हम लोग आप की उपासना और उन दोनों का उपयोग करें ॥३२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जैसे विद्वान् लोग ईश्वर, प्राण और बिजुली के गुणों को जान, उपासना वा कार्य्यसिद्धि करते हैं, वैसे ही उनको जानकर उपासना और अपने प्रयोजनों को सदा सिद्ध करते रहें ॥३२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सूर्य्यस्य) सवितृमण्डलस्य विद्युतो वा (चक्षुः) दर्शकम् (आ) समन्तात् (रोह) दर्शयसि दर्शयति वा (अग्नेः) भौतिकस्य (अक्ष्णः) दर्शनसाधकस्य (कनीनकम्) कनति प्रकाशते येन तत्। अत्र कनीधातोर्बाहुलकादौणादिक ईनकप्रत्ययः (यत्र) यस्मिन् (एतशेभिः) विज्ञानवेदादिभिरागमकैर्गुणैरश्वैः। एतश इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (ईयसे) विज्ञायसे विज्ञायते वा (भ्राजमानः) प्रकाशमानः (विपश्चिता) मेधाविना विदुषा। विपश्चिदिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) अयं मन्त्रः (शत०३.३.४.८) व्याख्यातः ॥३२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! यत्र त्वमेतशेभिर्भ्राजमानो विपश्चितेयसे, यत्र प्राणो विद्युद्वैतशेभिर्विपश्चिता भ्राजमानो विज्ञायते। यत्र त्वं स सा च सूर्य्यस्याग्नेरक्ष्णः कनीनकं चक्षुरारोह समन्ताद् दर्शयति वा, तत्र वयं त्वां तं तां चोपासीमहि युञ्ज्याम वा ॥३२॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा विद्वद्भिरीश्वरः प्राणो विद्युच्च विज्ञायोपास्यते संप्रयुज्यते च, तथैव विज्ञायोपास्य उपयोक्तव्यः संप्रयोजितव्या च ॥३२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक ईश्वराची उपासना करतात व प्राण आणि विद्युत यांचे गुणधर्म जाणून कार्य सिद्ध करतात. त्याप्रमाणेच सर्व माणसांनी ईश्वरोपासना करावी व प्राण आणि विद्युत यांच्याद्वारे कार्यसिद्धी करून घ्यावी.