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प्रति॒ पन्था॑मपद्महि स्वस्ति॒गाम॑ने॒हस॑म्। येन॒ विश्वाः॒ परि॒ द्विषो॑ वृ॒णक्ति॑ वि॒न्दते॒ व॒सु॑ ॥२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रति॑। पन्था॑म्। अ॒प॒द्म॒हि॒। स्व॒स्ति॒गामिति॑ स्वस्ति॒ऽगाम्। अ॒ने॒हस॑म्। येन॑। विश्वाः॑। परि॑। द्विषः॑। वृ॒णक्ति॑। वि॒न्दते॑। वसु॑ ॥२९॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस परमेश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप के अनुग्रह से युक्त पुरुषार्थी होकर हम लोग (येन) जिस मार्ग से विद्वान् मनुष्य (विश्वाः) सब (द्विषः) शत्रु सेना वा दुःख देनेवाली भोगक्रियाओं को (परिवृणक्ति) सब प्रकार से दूर करता और (वसु) सुख करनेवाले धन को (विन्दते) प्राप्त होता है, उस (अनेहसम्) हिंसारहित (स्वस्तिगाम्) सुख पूर्वक जाने योग्य (पन्थाम्) मार्ग को (प्रत्यपद्महि) प्रत्यक्ष प्राप्त होवें ॥२९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि द्वेषादि त्याग, विद्यादि धन की प्राप्ति और धर्ममार्ग के प्रकाश के लिये ईश्वर की प्रार्थना, धर्म और धार्मिक विद्वानों की सेवा निरन्तर करें ॥२९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किमर्थं प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(प्रति) प्रत्यक्षे वीप्सायां च (पन्थाम्) मार्गं मार्गम् (अपद्महि) प्राप्नुयाम (स्वतिगाम्) स्वस्ति सुखं गच्छति येन तम्। अत्र जनसनखन०। (अष्टा०३.२.६७) अनेन विट् प्रत्ययः (अनेहसम्) अविद्यमानानि एहांसि हननानि यस्मिंस्तम्। अत्र नञि हन एह च। (उणा०४.२२४) अनेनायं सिद्धः (येन) मार्गेण (विश्वाः) सर्वाः (परि) सर्वतः (द्विषः) द्विषन्ति अप्रीणयन्ति याभ्यः शत्रुसेनाभ्यो दुःखक्रियाभ्यो वा ताः। अत्र कृतो बहुलम्। [अष्टा०३.३.११३] इति हेतौ क्विप् (वृणक्ति) वर्जयति, अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (विन्दते) लभते (वसु) सुखकारकं धनम्। अयं मन्त्रः (शत०३.३.३.१५-१६) व्याख्यातः ॥२९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वराग्ने ! त्वदनुगृहीता पुरुषार्थिनो भूत्वा वयं येन विद्वान् विश्वा द्विषः परिवृणक्ति वसु विदन्ते, तमनेहसं स्वस्तिगां पन्थां मार्गं प्रत्यपद्महि प्रत्यक्षतया व्याप्त्या प्राप्नुयाम ॥२९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्द्वेषादित्यागाय विद्याधनप्राप्तये धर्ममार्गप्रकाशायेश्वरप्रार्थना धर्मविद्वत्सेवा च नित्यं कार्य्या ॥२९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी द्वेष इत्यादींचा त्याग, विद्या वगैरे धनाची प्राप्ती व धर्ममार्गाचे अनुसरण करण्यासाठी ईश्वराची प्रार्थना करावी व धर्मपालन आणि धार्मिक विद्वानांची सतत सेवा करावी.