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अग्ने॒ त्वꣳ सु जा॑गृहि व॒यꣳ सु म॑न्दिषीमहि। रक्षा॑ णो॒ऽअप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ नः॒ पुन॑स्कृधि ॥१४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। त्वम्। सु। जा॒गृ॒हि॒। व॒यम्। सु। म॒न्दि॒षी॒म॒हि॒। रक्ष॑। नः॒। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। प्र॒बुध॒ इति॑ प्र॒ऽबुधे॑। न॒। पु॒न॒रिति॒ पुनः॑। कृ॒धि॒ ॥१४॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) जो अग्नि (प्रबुधे) जगने के समय (सुजागृहि) अच्छे प्रकार जगाता वा जिससे (वयम्) जगत् के कर्मानुष्ठान करनेवाले हम लोग (सुमन्दिषीमहि) आनन्दपूर्वक सोते हैं, जो (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित होके (नः) प्रमादरहित हम लोगों की (रक्ष) रक्षा तथा प्रमादसहितों को नष्ट करता और जो (नः) हम लोगों के साथ (पुनः) बार-बार इसी प्रकार (कृधि) व्यवहार करता है, उसको युक्ति के साथ सब मनुष्यों को सेवन करना चाहिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जो अग्नि सोने, जागने, जीने तथा मरने का हेतु है, उसका युक्ति से सेवन करना चाहिये ॥१४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

(अग्ने) अयमग्निः (त्वम्) यः (सु) श्रैष्ठ्ये (जागृहि) जागर्त्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (वयम्) कर्मानुष्ठातारो नित्यं जागरिताः (सु) शोभने (मन्दिषीमहि) शयीमहि (रक्ष) रक्षति। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः। [अष्टा०६.३.१३५] इति दीर्घः (नः) अस्मान् (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (प्रबुधे) जागरिते (नः) अस्मान् (पुनः) (कृधि) करोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। अयं मन्त्रः (शत०३.२.२.२२) व्याख्यातः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - अग्ने त्वं योऽग्निः प्रबुधे नोऽस्मान् सुजागृहि सुष्ठु जागरयति, येन वयं सुमन्दिषीमहि, योऽप्रयुच्छन्नोऽस्मान् रक्ष रक्षति, प्रयुच्छतश्च हिनस्ति, यो नोऽस्मान् पुनः पुनरेवं कृधि करोति, सोऽस्माभिर्युक्त्या सम्यक् सेवनीयः ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्योऽग्निः शयनजागरणजीवनमरणहेतुरस्ति स युक्त्या संप्रयोक्तव्यः ॥१४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो अग्नी झोपणे, जागणे, जगणे, मरणे यांचे कारण आहे त्याचे माणसांनी युक्तिपूर्वक सेवन केले पाहिजे.